Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 16
________________ ३६ ३६ विषय विषय जघन्य आयुवेदनाका अल्पबहुत्व । एक एक स्थानमें कितने अविभागप्रतिजघन्य नामवेदनाका अल्पबहुत्व ३६ च्छेद होते हैं जघन्य गोत्रवेदनाका अल्पबहुत्व अनुभागका विशेष खुलासा जघन्य वेदनीयवेदनाका अल्पबहुत्व अविभागप्रतिच्छेदका स्पष्टीकरण उत्कृष्ट आयुवेदनाका अल्पबहुत्व द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षा जघन्य स्थानमें उत्कृष्ट दो आवरण और अन्तरायवेदनाका अविभाग प्रतिच्छेदोंका विचार अल्पबहुत्व ३६ वर्गका संदृष्टिपूर्वक विचार उत्कृष्ट मोहनीयवेदनाका अल्पबहुत्व ३६ वर्गणाविचार उत्कृष्ट नाम और गोत्रवेदनाका अल्पबहुत्व ३६ स्पर्धकविचार उत्कृष्ट वेदनीय वेदनाका अल्पबहुत्व अविभागप्रतिच्छेदकी त्रिविध प्ररूपणाकी उत्तर प्रकृतियों की अपेक्षा अल्पबहुत्व ४० प्रतिज्ञा सातावेदनीय आदि प्रकृतियोंका अल्पबहुत्व ४० वर्गणाप्ररूपणाके तीन प्रकार व उनका आठ कषाय आदि प्रकृतियोंका अल्पबहुत्व ४२ विवेचन अयशःकीर्ति आदि प्रकृतियोंका अल्पबहुत्व ४४ स्पर्धक प्ररूपणाके तीन प्रकार व उनका चौंसठ पदवाला उत्कृष्ट महादण्डक ४४ विवेचन उत्तर प्रकृतियोंका स्वस्थान उत्कृष्ट अन्तरप्ररूपणाके तीन प्रकार व उनका अल्पबहुत्व विवेचन तीन गाथाओं द्वारा संज्वलन चतुष्क आदि परमाणुओंमें अविभागप्रतिच्छेदोंका प्रकृतियोंका अल्पबहुत्व ६५ आरोपकर जघन्य स्थानमें प्रदेशप्ररूपणा १०१ चौंसठ पदवाला जघन्य महादण्डक प्रदेशप्ररूपणामें छह अनुयोगद्वारों के नाम उत्तरप्रकृतियोंका स्वस्थान जघन्य व संदृष्टिपूर्वक उनका विवेचन करनेकी अल्पबहुत्व प्रतिज्ञा प्ररूपणा प्रथम चूलिका ७८-८७ प्रमाण १०२ दो सूत्र गाथाओंद्वारा गुणश्रेणि निर्जराके श्रेणिप्ररूपणाके दो भेद व उनका विचार ग्यारह स्थान और काल अवहारविचार १०४ अलग अलग सूत्रों द्वारा गुणश्रेणि भागाभागको अवहारके समान जाननेकी निर्जराका विचार सूचना ११० अलग अलग सूत्रों द्वारा गुणश्रेणि निर्जराके अल्पवहुत्वविचार कालका विचार ८५ स्थानप्ररूपणा स्थानपदकी व्याख्या १११ द्वितीय चूलिका ८७-२४० स्थानके दो भेद व उनका लक्षणपूर्वक अनुभागबन्धाध्यवसानस्थानमें १२ अनु- विशेष विचार १११ योगद्वारोंकी सूचना अन्तरप्ररूपणा ११४ बारह अनुयोगद्वारोंके नाम व उनकी अन्तरप्ररूपणाकी सार्थकता ११४ सार्थकता ८ । स्थानान्तरका स्वरूप. . . . . ११४ १०१ ११० ८७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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