Book Title: Shatkhandagama Pustak 12 Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay AmravatiPage 14
________________ ( ७ ) क्षेत्रादि वेदना किस प्रकारकी होती है। तथा विवक्षित एक कर्म की द्रव्यादि वेदना उत्कृष्ट या जघन्य रहने पर अन्य कर्म की द्रव्यादि वेदना उत्कृष्ट या जघन्य किस प्रकार की होती है, इस बातका विचार करने के लिए यह वेदनासन्निकर्षविधान अनुयोगद्वार आया है। इस हिसाब से वेदनासन्निकर्ष के स्वस्थानसन्निकर्ष और परस्थानसन्निकर्ष ये दो भेद होकरे उनमेंसे प्रत्येकके द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा चार-चार भेद करके स्वस्थानवेदनासन्निकर्ष और परस्थानवेदनासन्निकर्षका इस अनुयोगद्वार में विस्तार के साथ विचार किया गया है । १४ वेदनापरिमाणविधान ज्ञानावरणादि आठ कर्मोंकी प्रकृतियाँ कितनी हैं इस बातका विवेचन करने के लिए यह अनुयोगद्वार आया है। इसमें प्रकृतियोंका विचार प्रकृत्यर्थता, समयप्रबद्धार्थता और क्षेत्रप्रत्यास इन तीन प्रकारोंसे किया गया है । प्रकृत्यर्थता अनुयोगद्वार में ज्ञानावरणादि कर्मोंकी उत्तर प्रकृतियोंकी मुख्यतासे उनकी संख्या बतलाई है । मात्र ज्ञानावरण, दर्शनावरण और नामकर्मकी उत्तर प्रकृतियाँ क्रगसे ५, ६ और १३ न बतलाकर असंख्यात लोकप्रमाण बतलाई हैं। ज्ञानावरण और दर्शनावरणकी असंख्यात लोकप्रमाण प्रकृतियाँ क्यों है इसका कारण बतलाते हुए वीरसेन स्वामी कहते हैं कि चूंकि ज्ञान और दर्शनके अवान्तर भेद असंख्यात लोक प्रमाण हैं, इसलिए इनको आवरण करनेवाले कर्म भी उतने ही । तथा नामकर्मकी असंख्यात लोकप्रमाण प्रकृतियाँ क्यों हैं इसका कारण बतलाते हुए वीरसेन स्वामी कहते हैं कि चूँकि आनुपूर्वीके भेदोंका तथा गति, जा और शरीरादिके भेदों का ज्ञान कराना आवश्यक था, अतः इस कर्मकी असंख्यात लोकप्रमाण प्रकृतियाँ कही हैं | समयप्रबद्धार्थता अनुया गद्वार में प्रत्येक कर्मके अवान्तर भेदोंकी उत्कृष्ट स्थ प्रमाण समयप्रबद्धों से उस उस कर्मकी अवान्तर प्रकृतियोंको गुणितकर परिमाण लाया गया है । मात्र ऐसा करते हुए आयुकर्मका समयप्रबद्धार्थताकी अपेक्षा परिमाण लाते समय आयुकर्मकी अवान्तर प्रकृतियोंको अन्तर्मुहूर्तसे गुणा कराया गया है। इसका कारण बतलाते हुए वीरसेन स्वामीका कहना है कि आयुकर्मका बन्धकाल यतः अन्तर्मुहूर्त है अतः यहाँ अन्तर्मुहूर्त काल से गुणा कराया गया है । क्षेत्रप्रत्यास अनुयोगद्वार में प्रत्येक कमकी समयप्रबद्धार्थताप जितनी प्रकृतियाँ उपलब्ध हुईं उनको उस उस प्रकृतिके उत्कृष्ट क्षेत्र से गुणित करके परिमाण लाया गया है 1 १५ वेदनाभागाभाग विधान इस अनुयोगद्वार में पूर्वोक्त प्रकृत्यर्थता, समयप्रबद्धार्थता और क्षेत्रप्रत्यासकी अपेक्षा अलग अलग ज्ञानावरणादि कर्मोंकी प्रकृतियोंके भागाभागका विचार किया गया है । यथा-प्रकृत्यर्थता की अपेक्षा ज्ञानावरण और दर्शनावरणकी प्रकृतियाँ अलग-अलग सब प्रकृतियों के कुछ कम दो भागप्रमाण बतलाई हैं और शेष छह कर्मों की प्रकृतियाँ अलग-अलग असंख्यातवें भागप्रमाण बतलाई हैं । इसीप्रकार समयप्रबद्धार्थता और क्षेत्रप्रत्यासकी अपेक्षा भी किस कर्मकी प्रकृतियाँ सब प्रकृतियोंके कितने भागप्रमाण हैं इसका विचार किया गया है । १६ वेदना अल्पबहुत्वविधान इस अनुयोगद्वार में भी प्रकृत्यर्थता, समयप्रबद्धार्थता और क्षेत्रप्रत्यासका आश्रयकर अलगअलग ज्ञानावरणादि कर्मों के अल्पबहुत्वका विचार किया गया है। इसप्रकार इन सोलह अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणा समाप्त होनेपर वेदनाखण्ड समाप्त होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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