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नहीं है... किन्तु भरपूर वैराग्य की बातों को सुहावने - लुभावने शब्दों में सजा कर रखना... यह बड़ा ही मुश्किल कार्य है । उपाध्यायजी ने शानदार ढंग से बेजान शब्दों में जान डालकर रचना की है !
पूज्य गुरुदेव आचार्य भगवंत श्री विजय भद्रगुप्तसूरीश्वरजी महाराज का यह प्रिय स्वाध्याय ग्रंथ है । अनेक बार उन्होंने अपने रसमधुर स्वर में इन भावनाओं को गाया है, विवेचित की है, और इस तरह सैंकड़ों संतप्त मन को सांत्वना के किनारे पर ले गये है ।
उनकी बरसों की महत्त्वाकांक्षा, एक पिछले प्रहर का स्वप्न मंत्रमुग्ध कर दे... उस रूप से आकार लेकर साकार हुआ है । और वह श्रेय उनके मानस शिष्य केतन संगोई, कौशिक संगोई एवं कल्पना संगोई की भाई-बहन की त्रिवेणी के हिस्से में जाता है । महीनों की सतत मेहनत, शास्त्रीय रागों का गुंफन, सरस स्वरनियोजन, अनवरत रियाज, ये सारे मील के पत्थर बीता कर वह स्वरयात्रा शांतसुधारस के रूप प्रस्तुत हो चुकी है ।
में
कभी मौका मिले तो उस स्वरयात्रा में शामिल होना ।
फिलहाल तो प्रस्तुत शांतसुधारस काव्य को गाना.... पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों को पढ़ना... उस पर चिंतन करना... शांतसुधारस की मस्ती में डूबे हुए श्री विनयविजयजी के शब्दों के नक्शे में तुम अपना विरागमार्ग खोजने की कोशिश करना ।
शांत सुधा के सागर किनारे मुझे बनानी मिनारें 'प्रियदर्शन' वे महल है प्यारे, नजर न आये किनारें !'
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भ.बा.वि.
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