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८. त. सू. (७-३२) में सल्लेखना के अतिचार जीविताशंसा, मरणाशंसा, मित्रानुराग, सुखानुबन्ध और निदान ये पाँच कहे गये हैं । परन्तु श्रा. प्र. (३८५) में वे इस प्रकार निर्दिष्ट किये गये हैं- इहलोकाशंसाप्रयोग, परलोकाशंसाप्रयोग, जीविताशंसाप्रयोग, मरणाशंसाप्रयोग और भोगाशंसाप्रयोग ।
९. त. सूत्र और उसके भाष्य में श्रावक की दर्शन व व्रत आदि प्रतिमाओं का कहीं कुछ निर्देश नहीं किया गया जब कि श्रा. प्र. (३७६) में उनका उल्लेख भी विशेष करणीय के रूप में किया गया है। १०. त. सूत्र में बारह व्रतों और सल्लेखना के पश्चात् दान व उसकी विशेषता का भी अलग से निर्देश किया गया है (७, ३३-३४) । पर उसका विधान श्रा. प्र. में कहीं नहीं किया गया ।
(४) श्रावकप्रज्ञप्ति और आचारांग
अंगसाहित्य का निर्माता गौतम गणधर अथवा सुधर्मा स्वामी को माना जाता है। वर्तमान में जो आचारांग आदिरूप अंग साहित्य उपलब्ध है वह अपने यथार्थ स्वरूप में उपलब्ध नहीं है । उसे साधुसमुदाय की स्मृति के आधार पर वी. नि. सं. ९८० के आसपास वलभी में तीसरी वाचना के समय आचार्य देवर्द्धि गणि (५वीं शती) के तत्त्वावधान में पुस्तक रूप में ग्रथित किया गया है।
आचारांग यह १२ अंगों में प्रथम है । प्रकृत श्री. प्र. (६१) जो 'जं मोणं तं सम्मं' आदि गाथा अवस्थित है वह आचारांग के सूत्र १५६ (पृ. १९२) से प्रभावित है । इसकी टीका में हरिभद्र सूरि ने 'उक्तं चाचारांगे' ऐसा निर्देश करते हुए 'जं मोणं ति पासहा' आदि उक्त सूत्र को अपनी टीका में उद्धृत भी कर दिया है। विशेष इतना है कि आचारांग में जो उसका पूर्वार्द्ध है वह यहाँ उत्तरार्द्ध के रूप में और जो वहाँ उत्तरार्द्ध है वह यहाँ पूर्वार्द्ध के रूप में उपलब्ध होता है।
प्रस्तावना
(५) श्रावकप्रज्ञप्ति और सूत्रकृतांग
सूत्रकृतांग बारह अंगों में दूसरा अंग है । वह दो श्रुतस्कन्धों में विभक्त है । उसके द्वितीय श्रुतस्कन्ध के अन्तर्गत नालन्दीय नामक अन्तिम अध्ययन में इन्द्रभूति गणधर के द्वारा पार्श्वपत्यीय पेढालपुत्र उदक निर्गन्थ के प्रश्नानुसार गृहस्थधर्म की प्ररूपणा की गयी है । प्रकृत में श्रा. प्र. की गाथा ११५ में अहिंसाणुव्रत के प्रसंग में एक शंका का समाधान करते हुए किसी गृहपति के पुत्र चोरों के ग्रहण और मोचन का उदाहरण दिया गया है। इस गाथा की टीका में हरिभद्र सूरि ने उससे सम्बद्ध कथानक को उद्धृत करते हुए यह कहा है कि यह केवल अपनी बुद्धि से की गयी कल्पना नहीं है । सूत्रांग में भी यह कहा गया है-गाहावइसुयचोरग्गहण - विमोक्खणयायेत्ति । ऐसी सूचना करते हुए उन्होंने आगे 'एतत्संग्राहकं चेदं गाथात्रयम्' ऐसा निर्देश करके उक्त कथानक से सम्बद्ध उन तीन (११६-११८) गाथाओं का भी उल्लेख कर दिया है। इन गाथाओं में उक्त कथानक की संक्षिप्त सूचना मात्र करते हुए दृष्टान्त की संगति दात से बैठायी गयी है। इस प्रकार श्रावकप्रज्ञप्ति के अन्तर्गत वह शंका-समाधान पूर्णतया सूत्रांग (२, ७, ७५, पृ. २६७-२६८) से प्रभावित है।
आगे श्रा. प्र. (११९-१२३) में वादी के द्वारा नागरकवध का दृष्टान्त देते हुए सामान्य से की जाने वाली त्रसप्राणघातविरति को अनिष्ट बतलाकर यह कहा गया है कि इसीलिए सामान्य से त्रसप्राणघातविरति को न कराकर विशेष रूप में त्रसभूतप्राणघातविरति को करना चाहिए ।
इस शंका का समाधान करते हुए आगे (१२३ - १३२ ) वादी के द्वारा उपन्यस्त 'भूत' शब्द के अर्थ-विषयक उपमा और तादर्थ्यरूप दो विकल्पों को उठाकर उन दोनों ही विकल्पों में 'भूत' शब्द के