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प्रस्तावना
सामाइयम्मि दु कदे समणो इर सावओ हवदि जम्हा।
एदेण कारणेण दु बहुसो सामाइयं कुज्जा ॥ ७-३४ ॥ यह गाथा प्रकृत श्रा. प्र. (२९९) में भी उपलब्ध होती है। विशेष इतना है कि मूलाचार में जहाँ 'इर' है वहाँ श्रा. प्र. में उसके स्थान में 'इव' है। श्रा. प्र. में प्रसंग सामायिक शिक्षापद का है। वहाँ एक शंका के समाधान में दो प्रकार की शिक्षा गाथा, उपपात आदि १० द्वारों के (२९५) आश्रय से साधु और श्रावक के बीच भेद प्रकट किया गया है। उक्त गाथा 'गाथा' नामक दूसरे द्वार के प्रसंग में प्राप्त होती है। इससे इतना तो निश्चित है कि वह मूल ग्रन्थ की गाथा न होकर ग्रन्थान्तर से वहाँ प्रस्तुत की गयी है। प्रकृत गाथा आवश्यकनियुक्ति (५८४) और विशेषावश्यकभाष्य (३१७३) में भी उपलब्ध होती है। जिस शंका (२९३) के समाधान में साधु और श्रावक के मध्य में भेद दिखलाया गया है वह शंका यही थी कि श्रावक जब नियमित काल के लिए समस्त सावधयोग का परित्याग कर चुकता है तब वह साधु ही है। मूलाचार में जो 'इर (किल) पाठ है वह शका के अनुरूप दिखता है।
(३) श्रावकप्रज्ञप्ति और तत्त्वार्थाधिगमसूत्र
वाचक उमास्वाति विरचित तत्त्वार्थाधिगमसूत्र ग्रन्थ से संक्षिप्त होकर भी अर्थ से विशाल एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। वह दिगम्बर व श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों में लब्धप्रतिष्ठ है। उसमें मोक्ष के मार्गभूत सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का विवेचन करते हुए प्रसंगप्राप्त जीवादि सात तत्त्वों एवं नय-प्रमाणादि विविध विषयों की प्ररूपणा की गयी है। उसके सातवें अध्याय में आस्रव तत्त्व का विचार करते हुए व्रतों की प्ररूपणा में सामान्य से व्रत के अणुव्रत और महाव्रत ये दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं। वहाँ कहा गया है कि जो माया, मिथ्या व निदान इन तीन शल्यों से रहित हो वह व्रती होता है। वह अगारी-गृह में निरत श्रावक, और अनगारी-गृह से निवृत्त श्रमण-के भेद से दो प्रकार का सम्भव है। इनमें जिसके वे व्रत अणुरूप में (देशतः) सम्भव होते हैं वह अगारी -उपासक या श्रावक कहलाता है। वह उन अणुव्रतों के साथ दिग्वतादि सात शीलों या उत्तरखतों से सम्पन्न होता है। उक्त बारह व्रतों का परिपालन करते हुए वह मारणान्तिकी सल्लेखना का भी आराधक होता है। इस प्रकार यहाँ श्रावक के बारह व्रतों के पश्चात् अन्त में अनुष्ठेय सल्लेखना का भी उल्लेख करके आगे सम्यग्दृष्टि और तत्पश्चात् यथाक्रम से उन बारह व्रतों के साथ सल्लेखना के भी अतिचारों का निर्देश किया है। तत्त्वार्थसूत्र से श्रावकप्रज्ञप्ति की विशेषता
प्रस्तुत श्रावकप्रज्ञप्ति में इन व्रतों की विस्तार से प्ररूपणा की गयी है। वहाँ अनेक प्रसंग ऐसे हैं जो तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्य से सर्वथा समानता रखते हैं, पर वहाँ कुछ ऐसे भी प्रसंग हैं जो उक्त
से अपनी अलग विशेषता रखते हैं। यथा
१. सूत्र ७-२। २. सूत्र ७-१३। ३. सूत्र ७-१४। ४. सूत्र ७-१५। ५. सूत्र ७-१६ । ६. सूत्र ७-१७। ७. सूत्र ७-१८ । १. तत्त्वार्थसूत्र ७, १९-३२। २. जैसे-अतिथिसंविभागो नाम न्यायागतानां कल्पनीयानामन्नपानादीनां (च) द्रव्याणां देशकाल-श्रद्धा- सत्कार-क्रमोपेतं
परयाऽऽत्मानुग्रहबुद्धया संयतेभ्यो दानमिति। (तत्त्वार्थभाष्य ७-१६) नायागयाण अन्नाइयाण तह चेव कप्पणिज्जाणं। देसद्धसद्ध-सक्कार-कमजुयं परमभत्तीए।। (श्रावकप्रज्ञप्ति ३२५)