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ज०वि०
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IN होवे यह शास्त्र की नीति ॥ देखो० ॥ २॥ अति नम्र हो मिष्ट वयण से । यो
करता विनंति । पिता सम जेष्ट राज योग्य तुम । अनादि यह वृति ॥ देखो० ॥
३॥ में तुम सन्मुख सेवक सो रहूं । ज्यों लक्ष्मण सीतापति । इसीलिये विद्या यह । श्राप सिद्धकर । होवो भू इन्द्ररति ॥ देखो०॥ ४ ॥ जय कुमर लघु बन्धव । | ताइ । वांछे करण भूपति । बोले तूं किम् नहीं राज जोगो । न बोली जे अघटति | ॥ देखो० ॥ ५ ॥ अपन दोनों राज योग्य हां । लक्षण गुण प्राकृति । दोनों मिल । सिद्धकरां यह सिद्धी । रहकर पुक्त यति ॥ देखो० ॥ ६॥ विजय वचन प्रमाण | करी ये । बैठा जपनठिति । लघु बन्धव के विश्वास काजे । जय करे ढोंग रीति ॥ - देखो०॥७॥ मन्त्र जाप तो न करे किंचित । मुख हिलावे निति । देखो प्रेम
जेष्ट बन्धव का । निर्लोभी ज्यों जति ॥ देखो०॥८॥ तात ज्यों भ्रात की आज्ञा पालन । विजय सदा स्थिरचिति । यथा विधि साधे साविद्या । देखो लघुत्व वी | नीति ॥ देखो० ॥ ६ ॥ पग फिरण क्यों परिश्रम कीजिये । जो है वस्तु छति ।