Book Title: Samyktotsav Jaysenam Vijaysen
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Rupchandji Chagniramji Sancheti

View full book text
Previous | Next

Page 170
________________ ज०वि० १६१ यह प्रतिवेदन असाह्य मुझ थी । रहसी कितने कालतां || आयुष्य म्हारो रह्यो कित्ती घडी । जाने तो कहदे भाइ || दे० ॥ ६ ॥ ज्यों मुझने यह सर्प डस्यो है । ऐसो ही उसे अन्य तां । तो ते काल कितनों जीवे । जाणे तो देवताइ ॥ देखो ॥ ७ ॥ ते जाणूं तो में पाप झालोइ । सलेपणा करूं भले भावे || निशल्य होकर गति सुधारुं । और कुछ मुझ नहीं चावै ॥ देखो ॥ ८ ॥ यों सुण मत्सर धर हे गारुडी । स्थिति दीर्घ विष की जाणो ॥ जधन्य पीडे षट मासा लग । देव को कहा व्याख्यानो || देखो ॥ ६ ॥ पण क्यों भोगो दुःख दारुण यह । कारण किसो फरमावो || अति विस्मय महारो मन पावै । किर्थ सर्वस्व गमावो ॥ देखो ॥ १० ॥ महासत्व को धारी वीरपुत्र । सुणी ने नहीं डर्या लगारो ॥ निर्विकल्प चित्त ने द्रढ स्थिर कर । इस विध कर तो ऊचारो || देखो ॥ ११ ॥ सुणो सहू जन पुष्प की तरेह मुझ । तन प्रति है सुकुमाल ॥ तो पण धर्मार्थ मुनि पर अबी । मन तन हुवो मुझ उजमालो || देखो ॥ १२ ॥ जो यह वेदन सहतां

Loading...

Page Navigation
1 ... 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190