________________
ज०वि० १६४
ऊभाई ॥ जय २ नाद करे विजयराय को । दुंदवी रह्यो बजाइजी ॥ धन्य ॥ १ ॥ पंच दिव्य तहां प्रकट करीया । सुगंधी जल वर्षाई || रत्नाभूषण वस्त्र अत्युत्तम सोनैया ढग लगाइजी || धन्य || २ || अनेक रूपकर विचित्र देव का । गगन
TET || विविध प्रकारे विजय गुण गावै । वाजित्र विविध बजाइजी ॥ धन्य ॥ ३ ॥ अहो २ सत्व हो २ द्रढता । जे विजयराय में पाइ ॥ ते नहीं पावे अन्य स्थाने | धन्य २ विजय तात भाइजी ॥ धन्य ॥ ४ ॥ क्रोडोंरूप कर क्रोडों जिह्वा से । विजय गुण न कहाही | आज पवित्र होवुं चरण भेटी । यों कही सभा में हो | धन्य ॥ ५ ॥ महा दिव्य रूप वस्त्र भूषणधर । मुक्र मुगट पद ठाइ ॥ कह रुदन्तो क्षमो देव मुझ । महा अपराध कीधाईजी ॥ धन्य ॥ ६॥ करजोडी नमी सन्मुख ऊभो । सत्य विरतन्त दर्शाई ॥ में परसंस्था किसी कर नृप । सीमन्धर जिन सराइहो || धन्य ॥ ७ ॥ प्रथम स्वर्गपति जिन वन्दन गये विजय पुष्कलावति मां || सीमन्धर से इन्द्र प्रश्न किया । को सम्यक्त्वी भरत