________________
ज०वि०
१६८
म ॥ २ ॥ ब प्रति मोह घटाने । देइ पुत्र को राज | सर्व प्रपंच को छोडी करी ये । रहूं एकान्त जगाज || श्रावक का व्रत वारेही धारू । त्यों सुधरे कुछ काज हो ॥ तुम ॥ ३ प्रात भया पोषो पारी ने । चारों प्रहार निपजवाय । भाइ पुत्रना आदिदे । सवी परिवार जिमाय । प्रति डम्बर नन्दकुमर ने राज तखत बैठाय हो ॥ तुम ॥ ४ ॥ फिर लेइ सर्व की सो आज्ञा । धर्म उपकरण लेये । पोषधशाला में एकान्ते धर्म करंता रेय । तप जप खप शाख प्रमाणे । करे नित्य प्रत तेय हो ॥ सुणो ॥ ५ ॥ जे निपजे निज कुटुम्ब के घर में । उनके निमित से हर वक्त सिर अचिन्त्य तहां जाइ । मीगवे थोडे जे वार | ज्ञान ध्यान में सदा उद्यमी । हाणी न करे लगारहो || सुणो ॥ ६ ॥ एकदा सन्ध्या समय विजयजी | देवसी प्रतिक्रम कर । तीनों मनोर्थ चिन्तवता ते दीना स्थिर ध्यान धर । अपूर्व भाव चढ्या ते वारे एका ग्रहे तरजी ॥ सुणो ॥ ७ ॥ अहो प्रभु जीप महा सुख सागर । प्रकास्यो जैन धर्म । बिना कष्ट शुद्ध भाव श्राराधे ।