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ज०वि०विसाराजी ॥ तुम ॥ १३ ॥ इत्यादि चिन्तवन करत अप्रमत स्थान पाई ॥ आगे
क्षपक श्रेणि पडिवजी । कषाय लाय बुझाई ॥ क्षीण मोह को कियो विजय जी। Hशुक्ल ध्यान में रमाईयाजी ॥ तुम ॥ १४ ॥ घोर अन्धारी रात्री मांइ । अनन्त भानु IN के साइ ॥ केवलज्ञान और केवल दर्शन। विजय प्रात्मे प्रकटाइ । जो वस्तु महा - कष्ट से पावे । सो सहजे हाथ अाइजी ॥ तुम ॥ १५ ॥ पिता से पुत्र यों
अधिक गिनीजे । सो संयम ले केवल पाय । इनने तो गृहस्थाश्रम
मांही । ध्यान से केवल कमाया । यों पुण्य की उत्कृष्टता देखो । ध्यान बली K केसा भाया हो ॥ तुम ॥ १६ साधुलिंग सासणपति देवता तत्क्षीण लाइ दीना।
गृही वेस परिहर विजयजी । ताहे धारन कीना । ढाल उन्नीसवी कही अमोलक dविजयजी चिन्तित लीनाजी ॥ तुम ॥ १७ 8 दोहा ॥ केवल महीमा करन को ।
सुरगण अति उमंगाय । गगने वाजे देव दुंदुभी । जय २ शब्द गर्जाय ॥ १॥ पुरजन कौतुक देखके । अति आश्चर्य मन लाय । कौन पाये केवल इहां । दर्शने ।