Book Title: Samyktotsav Jaysenam Vijaysen
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Rupchandji Chagniramji Sancheti

View full book text
Previous | Next

Page 174
________________ ज०वि० १६५ मांइ हो ॥ धन्य ॥ ८ ॥ जिनजी नाम तुमारो दाख्यो । न सके देव दानव चलाइ ॥ तैसी पर संस्था सुधर्मी सभा में । कीनी सुरपति आइजी ॥ धन्य ॥ ६ ॥ में मिथ्यात्वी श्रध्यो नाहीं । जारयो अभी आबूं डीगाड़ || यो अभीमान धरी में आयो । श्रावक रूप बनाइ हो ॥ धन्य ॥ १० ॥ धर्म चरचा में नहीं पराभव्या तब । साधु समुदाय बनाइ ॥ भृष्टाचार बतायो मुनि को । तो भी तुम न चल्याइजी ॥ धन्य ॥ ११ ॥ नागदेव स्वप्नो में दीनो । निमिनिक मेही बन्याइ || नाग रूप धर उपसर्ग कीना । गारुडी हो याइ चलाइजी ॥ धन्य ॥ १२ ॥ इत्यादि सहू कर्तव्य महारा । तुमने महा पीडचाइ ॥ सब जग डीगीयो न तुझ मन तू Sairat | मेरु मरुत के सहाइजी ॥ धन्य ॥ धन्यं ॥ १३ ॥ अहो सत्वाधिश धर्मी माली मणी । शूरवीर धीर राइ || जिनेन्द्र देवेन्द्र परसंस्था से । अधिक पायाइंजी ॥ धन्य ॥१४॥ जेती महारी शक्ति थी सबही । तुम परली अजमाइ ॥ तुम मनकी महाशक्ति मागे । महारी नचाली कांइजी ॥ धन्य ॥ १५ ॥ सुर से भी नर अधिक प

Loading...

Page Navigation
1 ... 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190