________________
ज०वि० हो मूर्ख मा गमाय ॥ ३ ॥ सब जन त्रास नरमी कहे । अरे अब तो भी समझो १६० । राय ॥ समकित भंग आदि पाप सब । दो मेरे शिर ढाय ॥ ४॥ किमही नमो
नगेन्द्र को । ज्यों सब पावें सुख ॥ कोलाहल यों मचारहे । राय मौन गृही मुख ॥ ५ ॥ ॥ ढाल १७ वी ॥ नहीं सन्देह लगार निरोपम ॥ यह ॥ निर्मल समकिति विजय भूपति । श्री जिनधर्मी महाशूर ॥ यद्यपि महा उपसर्ग सहू विधि ।। तद्यपि न चल्यो मन भर ॥ विज०॥१॥ नरक सम दुःख से तन पीडावे ।। सजन बोले कुजबान ॥ कुटंब संहार हुवो पण जाण्यो । तो भी न कम्प्या प्राण ॥ विज०॥२॥ मेरु पर द्रढकर तन बैठा । पद्मासन लगाय ॥ कहे सब से बकबाद करो मत । मुझ मन द्रढ पहली सहाय ॥ विज०॥३॥ मुझ व्रत न पलटे कदापि । जो ऊगे पश्चिम भाण । रे गारुडी पड्यो किनके चाले । नहीं नहीं खण्डु जिन प्राण ॥ विज० ॥ ४ ॥ धर्म खण्डन की बात न करजे । करसी तो | शिक्षा पासी ॥रे गारुडी जो तूं जाने तो । में पूर्वी सो दे प्रकाशी ॥ देखो॥५॥