Book Title: Samyktotsav Jaysenam Vijaysen
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Rupchandji Chagniramji Sancheti

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Page 166
________________ ज०वि० ही तत्क्षीण । प्रगट्यो नभ में भाण । जाणे विजय की द्रढता प्रेक्षन ॥ प्रावै दिन १५७ ।। सुलतान ॥ देखो ॥ १॥ मन्त्र बले जो अही बन्धे थे। वो छूटै तत्काल ॥ नदी पूर जी उलटे एकदम । जैसे सेनारो आयो काल ॥ देखो ॥ २॥ काला लीला पीला धोला । काबरा विचित्र रंग ॥ दी जिह्वा से झरे विष महा । अरुण नेत्र. भय ढंग ॥ देखो ॥ ३॥ ते सर्प टोली में एक महानाग । उतंग फण पसार ॥ नृप सन्मुख हो बोले नरपर । अहो मूर्ख बे विचार ॥ देखो ॥ ४ ॥ धीठा चीठा भाव अरीठा । अधर्म नीडर बेश्रम ॥ धर्म गर्व छक उनमत होकर । करे वे विचार के कर्म ॥ देखो ॥ ५॥ नहीं जाणी हजु महारी शक्ति । जो सहतां मुश कल ॥ जहां लग तेरे अङ्ग न व्यापी । तहांलग तूं अटल ॥ देखो ॥ ६॥ जड नर कहने सुनने से । डर नहीं धरे लगार ॥ निज पर वीते समझे तुतही । येही है थारो विचार ॥ देखो ॥७॥ कृत्य कर्म का अति कटुक फल ॥ भोगव तूं । इणवार ॥ यों कहतो नृप अंगे बिठाणों । असूरत्त क्रोध मझार ॥ देखो ॥ ८॥

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