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ज०वि०
सेवक सेवनीरेलो ॥ १३ ॥ अहो ॥ नहीं इण लोक सुख चहाय जो। लाय जाणूं। १५५ हूं सम्पति सब संसार की रेलो ॥ अहो ॥ सब मिल्या वार अनन्त जो। तृप्त न al
| हुइ अात्म इश्वरी अपार नीरेलो ॥ १४ ॥ अहो ॥ अनित्य क्षणीक सुख काज जो। कौन मूर्ख हारेगा नित्य सुख सायबीरेलो ॥ अहो ॥ दुर्लभ लाभ हुवो ! मुझ जो। गमाया पीछी दुर्लभ हाथे प्रायवीरेलो ॥ १५ ॥ अहो सुण गारुडी॥
न तजु प्राणान्ते टेक जो । न नमुं कदापि जिनजी विना अन्य देवनेरे ॥ अहो ॥ ॥ तूं जाणे जिनमत रहस्य जो । तुझ ने चेतावा कही येह बातों में वनीलो ॥ १६॥ )
अहो ॥ तुझ थी जो होर उपाव जो। तो कर भलाइ सचेतन के प्राणीयारेलो
॥ अहो ॥ धर्म हट मत ताण जो । सार २ श्रदिले थोडा में जाणीयारेलो ॥१७॥ | अहो ॥ टूटी आयुष्य की स्थित जो । सान्ध सके नहीं शक्ति किसी ही देवनीरेलो ॥ अहो ॥ जो पूरो हुवा इन को कालजो। तो जा घर तुझ गरज नहीं । मुझ हेवनीरेलो ॥ १८ ॥ अहो सुणो श्रोताजी । इत्यादि विविध बात जो।।