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ज०वि०
ज्ञानी सु० ॥ १६ ॥ यह राज नहीं महेरो। में नहीं मालक यास हो ज्ञानी ॥ मिलिया नहीं भाई मुझ भणी। जो वाया घणा तास हो ज्ञानी ॥ सु०॥ १७ ॥ निरासा हुइ मुझ अति । तव परवश करने काम हो ज्ञानी ॥ वैठो में राजगादीये । अभिग्रहधारी तामहो ज्ञानी ॥ सु०॥ १८ ॥ जहांलग भाइजी नहीं मिले। छत्र
धरु नहीं सीस हो ज्ञानी । चामर बीजावो नहीं। राज चिन्ह तजते दीस हो ज्ञानी * ॥ सु०॥ १६ ॥ उमंग घणी मन मिलण की। पण नहीं सुण्या समाचार हो ज्ञानी।।
जो तुम जाणो तो शीघ्र कहो। मानुगा अति उपकार हो ज्ञानी ॥ १० ॥ २० ॥
यों सुण जयजी खुशी हुवा । अष्टादशमी यह ढाल हो ज्ञानी ॥ अमोल ऋषि | * कहे आगे सुणो। दोनों प्रगट मिले उजमाल हो ज्ञानी ॥ सु० ॥ २१ ॥ दोहा ॥
| निमन्तिक कहे विजय को । प्राकर्षण विद्या बल ॥ जयजी वन्धव तुमारडा।अावे । IN क्षीण में चल ॥ सु०॥१॥ भूप कहे शीघ्र ते करो। देवंगा वांछित इनाम ॥
इमसुण तांई निमन्तियों । अदृश्य होगयो ताम ॥ २ ॥ नेमन्ति रुप छोडी करी।