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ज०वि० १० श्री सद्गुरुभ्यो नमः “समकितोत्सव” जयसेण विजयसेण चरित्र का सम्यक्त्व
अधिकार नामक द्वितीय उत्तरार्ध खण्ड प्रारंभ ॥ दोहा ॥ प्रणमुं सिद्ध साधु चरण । सरस्वति गुरु पाय ॥ विघन हरे मङ्गल करे । द्वितीय खण्ड वरणाय ॥ १॥ समकित मूल धर्म वृक्ष का । व्रत शाख कीर्ती पान ॥ यश कुसुम फल मोक्ष दे। अाराधे मति मान ॥ २॥ विजयसेण सम्यक्त्व द्रढ । पाली संकट मांय ॥ गृहेवासे केवल लही । पाये सुख शाश्वताय ॥ ३ ॥ ऋद्धि बृद्धि हुइ बहू । यशः सुख विस्तार ॥ प्रमाद तजी चित्त चटक धर । कथो सुणो धर्म धार ॥ ४॥ जय नृपति । करे राज वर । विजय अनुज्ञाये रेय ॥ प्रीति पयोदक सारखी। अन्तर छे फक्त देय ॥ ५ ॥ वीता बहूत काल वृत ते । ऐसी तरह सुख पाय ॥ एकदा विजय है। कुमार ने । पश्चात् स्मरण श्राय ॥६॥राज देइ सचीव को। में लुब्धा यहां प्राय॥ ||
अब शीघ्र जाकर तहां । संतोषु परजा तांय ॥ ७ ॥ॐ ॥ ढाल १ ली ॥ सैयां ये । । मोय डररे लगो उस दिन को ॥ यह० ॥ सुणोजी भाइ विजय चरित्र सुखकारी॥