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ज० वि०
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हो | अमोल यह चउदमी ढाल । देव यों भरमावै प्रति ॥ सुणो ॥ २३ ॥ * ॥ दोहा ॥ इत्यादि जिनमत न्याय दे । राजा ने समझाय ॥ पण द्रढ राय ते बात ने । जरा ही श्रद्धे नाय ॥ १ ॥ गारुडी संतप्त हो । कहे खेदाश्चर्य घर || हटीलो नृप तुम सारीखो । नर नहीं देखा पर ॥ ५ ॥ ग्रही पक्ष सम्यक्त्व का । किया दया का नाश || स्वकुटुम्ब पर ममता नहीं। तो क्या आवे पर त्रास ॥ ३ ॥ हीया की उपजे नहीं । परकी न माने केण ॥ ऐसा नर से चुप भली । क्यों गमावूं वेण ॥ ४ ॥ धीर नृप यों बचन सुण । क्रोध न लायो लगार ॥ जनमत रहस्य समजाववा । करे गारूडी से उचार ॥ ५ ॥ * ॥ ढाल १५ मी ॥ हो पियु पंखीडा ॥ यह० ॥ अहो सुपो गारूडी । बोले जिन मार्गनी रहस्य तणा नृप जाणजो । जिन धर्म मानी न मानी मित न्याइ खरोरे लो || अहो सुए गारूडी । थें कही साची बात जो । चहात ऐसो कायर नर जिन मत परोरे लो ॥ १ ॥ हो | मुझ से न बोल यह बोल जो । तोल जो नर को देख के बय