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ज०वि० १४६
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महेरो । त्रिरत्न दुर्लभ अत्यन्त ॥ राजे ॥ ११ ॥ अनन्त पुण्ये समकित मिली । नहीं खोवूं क्षणिक सुख काज ॥ इम निश्चय कर स्थिर रह्या । नहीं पूजा फणीन्द्र देवताज ॥ रा• ॥ १२ ॥ दिवसोदय राय भवन में । एक दीर्घ सर्प प्रगटाय || श्याम शरीर रक्त ने थी । सर्व जनने भय उपजाय ॥ रा० ॥ १३ ॥ जेष्ट पुत्र को डंकीयो पड्यो मुरहाइ तत्काल ॥ सज्जन परिजन मिल करी । करे रुदन चाकन्द अस• ॥ राजे ॥ १४ ॥ कर धरी कहे राय को । अब शीघ्र चलो महाराय ॥ पूजा करो नाग मूर्ती । यह तो अनर्थ मोटो थाय ॥ रा० ॥ १५ ॥ राय न माने को ह नो तब पटराणी ने दियो डंक || ते भी पडी मुरछाय के । रायजी तो बैठा निशंक ॥ रा० ॥ १६ ॥ अति समजावे सहू मिली । भूप कान घरे नहीं बात ॥ तब डंक्यो बिचला कुमार नेजी | तेही पडयो मुरवात || रा० ॥ १७ ॥ तीनों राणी तीनों पुत्र ने इम । करडयो नाग करूर || छेउं पडया मुराय ने । कुटुम्ब कोपित हुयो रोश पूर ॥ ० ॥ १८ ॥ धिक्कारण लग्या रायने । राय कहे समता रखो मन ॥