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। सिंहासणे । बेठा करता सोही विचारतो । सुर सभा भरी ता समे। त्रय त्रीसक
सामानिक अष्ट पटनार तो । आत्म रक्षक तीनों परिषदा । अणिकपति | प्रकीर्ण अपार तो ॥ उत्सहा प्राणी माधवजी। सब सुरों से यों करे उचार तो
॥सम ॥ ४॥ धन्य भाग्य भरत भूमी तणो । तहां रहे नर त्रिजग सिणगार तो। । विजयपुर पति विजय भूपसा । परम विशुद्ध समकित पालनार तो। देव दानव
नहीं छल सके। शंका कांक्षा घाली सके न लगार तो। जास परसंस्था जिन
मुख तास हो । जो महारा नमस्कार तो॥सम॥५॥ सब सुर नमन कियो तदा।। N पण एक मिथ्यात्वी सुर तस म्यान तो। धर्मी नर नी महीमा सुणी । तस मन ||
दुख पायो असमान तो ॥ चिन्ते भोला शुचिपति। निरर्थक नर का करे गुणगान || तो । सामर्थ है कोण देव सम । जो चला देवे भूगिरी स्थान तो ॥ सम ॥ ६ ॥ तो क्या कथा मानवी तणी। पण कहूं तो अबी नहीं माने बात तो । सब हंसी । करे माहेरी । करी बताउं येही साक्षात तो ॥ सम ॥ चलित करुं विजयराय ने । ।