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ज०वि अरुण नेत्र अग्नि समाजी। मस्सी सम शरीर ॥ लम्ब भयंकर विष भर्याजी। १४३ ।। उभय जीभे झरे नीर ॥ धन्य ॥ १६ ॥ फण विस्तारी फंकारता जी। वन्हि ज्वाला
। प्रगटाय ॥ धरणी पछाडी फण पूंछ ने । ते सदन सर्व थरराय ॥ धन्य ॥ १७ ॥ M] भय भ्रान्त हुइ अन्ते उरीजी । दासादि पाया त्रास ॥ कोलाहल मच्यों महलमें । ।
ते रायजी सुणीयो खास ॥ धन्य ॥ १८ ॥ आकर देख महलमें जी। लग रही
दोडा दोड ॥ भुयंगम भयंकर अतिजी। देखे ही भागे खोड ॥ धन्य ॥ १६ ॥ N त्याग करी ते भवन को सब । अन्यस्थाने जाय ॥ जीव की साथे कर्म ज्यों । ते ।
सर्प लारे धाय ॥ धन्य ॥ २० ॥ जावे तहां साथ आवेजी। जाण्यो तब देव चरित्र ॥ Lal निश्चिन्त बैठा एक स्थानक । में तो नहीं गमावू समकित ॥धन्य ॥ २१ ॥ सज्जन
आदि घबरावे । पण राय न देवे ध्यान ॥ होणहार सो होवसी । यों चिन्ते निर्मल ज्ञान ॥ धन्य ॥ २२ ॥ उत्तरार्ध यह खण्ड की । ढाल द्वादश अमोल कहंत ॥ ऐसा द्रढ श्रधा धारी जी । क्यों नहीं मोक्ष लहंत ॥ २३ ॥ ॥ दोहा ॥ दाना शाणा