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ज०वि०
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नहीं जी | स्वप्न निमन्तिक बात || होणहार सो होवसी । जो जिनजी देख्यो साक्षात ॥ धन्य ॥ ८ ॥ शुभा शुभ कर्म उपार्जिया । ते भोग्या ही छूटको होय | क्षणिक सुख ने कार | कोन मूर्ख सम्यक्त्व विमोय ॥ धन्य ॥ ६ ॥ देव फस्या कर्म फास में ते । मानव ने कैसे छोडाय || इम निश्चय अवलम्बिने । निश्चिन्त रह्या विजयराय ॥ धन्य ॥ १० ॥ सचीव सामान्त शाहजन मिली। करे नृप से नमी दास ॥ पधारो नाग पूजवा । ज्यों उपद्रव होवे नाश ॥ ध० ॥ ११ ॥ राय है कर्मोदय । नहीं देव टाला सामर्थ ॥ सम्यक्त्व रत्न गमाबवो । न करूं मे यह अनर्थ ॥ धं० ॥ १२ ॥ दुःख सुख देव न दे सकेजी । कर्म संचित फल पाय | यह अनुज्ञ शास्त्र की ते । येहीज वक्त काम श्राय ॥ धन्य ॥ १३ ॥ तत्त्वज्ञ धर्मी हु तुम | कैसी देवो मुझ यह सीख ॥ माल संभालो आपणो । ज्यों आगे न पावे तीख ॥ धन्यं ॥ १५ ॥ इत्यादि सुन सहू चुप हुवाजी । निज २ स्थाने जाय ॥ तत्क्षीण राय भवन में बहूत फणी घर प्रकट थाय ॥ धन्य ॥ १५ ॥
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