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नवि०
जमाय । मारे भरी जरा लारे न सरके ॥ प्रा०॥७॥ वक्तर संगीन रंगीन नयन | रोश में । झल झले अस्सी न ली भाला कर में ॥ शूर रस में छके बके अरी । लोभवो । सूर रस पर रणतर रम्में ॥ प्रा०॥८॥ यों चतुरंगी बहजंगी सेना बनी। धर्म राजा तणी चोजे चाली ॥ अाइया कटक जहां प्रतिष्ट कुमर का। रण में चौगान विशाल भाली ॥ प्रा०॥६॥रणां गण झडावीया । सड चडावीया। निशाण फररावीया दोनों राजा ॥ शस्त्र अस्त्र सजी थइ २ नाचे शूरमा। बाजे जुजावु रणतूर बाजा ॥ श्रा० ॥ १०॥ दयाल जय विजय यों देख चित्त । चिन्तवे । विन काम घमशाण महा अभी थावे ॥ महा पाप संग्रही निश्चय जावे | मरी। नहीं करूं यह अकृत्व भावे ॥श्रा०॥ ११ ॥ श्रापणी सेना को ना कही लडन की ॥ दोनों भाइ आगे ऊभा जो रहीया ॥ प्रति पक्ष तेन छंछेडी कू वेण कहे । एक बाजू संग्राम चालूनी थइया ॥ प्रा० ॥ १२ ॥ धर्मराय सेन रोश कर । न्हाखे शस्त्र कुमर पर ॥औषधी महीमा कर नहीं लागे ॥ मेघ धारा ज्यों वर्षे शस्त्र