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লনি
| जाण्या तास परम उपकारी ॥ स०॥ ११ ॥ निश्चय में अब दिन सात में । पर ।
वश्ये छोड जास्यूं ऋद्धि सारी ॥ जो कुछ करनो होवे सो करलूं । जो पर भव | संग आवे म्हारी ॥ स० ॥ १२ ॥ निमन्त ज्ञानी को संतुष्ट कीना । तेतो गया स्व-। के स्थान इछारी ॥रायजी ज्ञान दया धर्म उन्नति । कीनी लीनी खरची टकारी ॥
स०॥ १३ ॥ जयजी को बौलाके पयंपे । हिवे मुझ ऋद्धि सहू तुमारी॥ द्रव्य संभालो प्रजा पालो । आज्ञा मुझ देवो इन वारी ॥ स० ॥ १४ ॥ अचंभी नरमी! जयजी उचारे । अवचिन्त यह क्या आप विचारी ॥ रायजी वात प्रकाशी निमन्तनी । तब तिण राज ऋद्धि स्वीकारी ॥ स०॥ १५ ॥ पुरपति तब ऋद्धि त्या| गी । जिनेन्द्र परुपित दीक्षा धारी ॥ एकान्त स्थान प्रासण द्रढ स्थापी। हुवा ।। ध्यानस्त मेरुगिरी सारी ॥ स० ॥ १६ ॥ पदस्थ से पिण्डस्थ में पेठा । रुपस्थ ध्याता रुपाती तारी ॥ यों धर्म ध्याने रमे वर्या शुकल । क्षपक श्रेणी चडे शीघ्रतारी | ॥ स० ॥ १७ ॥ वेद कषाय कीया क्षीणमें क्षय । सयोगी केवल ज्ञानी भयारी ॥