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ज०वि निश्चिन्त पश्चिम निश । स्वप्न अचिन्त्यो प्राय ॥ १ ॥ जयति नयरी स्वर्ग सी।
जयन्त राजा गुण धार ॥ विजिया तनुजा तेहनी अतुल्य गुणागार ॥ २॥ । सवरा मंडप तेहनो। रुचो अजब रंग ढंग । राज राजेश्वर बहू मिल्या । घरता
वरण उछरंग ॥३॥ सर्व राजा को परहरि। विजया वरी विजय तांय ॥ हर्षे स्यन्द तब तन भयो । तत्क्षीण जाग्रत थाय ॥ ४ ॥ तत्क्षीण उठ बैठा हुवा। आश्चर्य
अति मन लाय। कि हां विजीया किहां जयंतीपुर किम स्वप्न यह मुझ पाय ॥५॥ N॥ ढाल २२ मी ॥ न्यालदे की देशी में ॥ सुणजो कथा पुण्यशालीनी,जी भाइ ।
पुण्य सदा सुखदाय ॥ पुण्यवन्त ने पुण्यवन्त मिले जी। जो दूर देशे ही रहाय । ॥ सुण ॥ १॥ चिन्ते अचिन्त स्वप्न अावीयोजी कांइ । यह तो खोटो नहीं थाय ॥
जावू भाइनी रजा लइ जी। लेवू स्वम अजमाय ॥ सुण ॥ २॥ प्राते जणायो । जय भणीजी भाइ । दी आज्ञा तत्काल ॥ मणी प्रभावे खगगति जी। गया जय
न्ति चाल ॥ सुण ॥ ३॥ चिन्ते इण रूप में मुझवरे जी कांइ । तामे आश्चर्य ।