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ज०वि०
० अति लोभ दुःखदायी है जी । न लीजे कोइ को छेय ॥ श्रो० ॥ १६ ॥
इम कही ते भगगइजी । भाइ कुमरजी पास । अन्तर नहीं जणावतीजी नित्य
नव अकरत विलास ॥ श्रो० ॥ २०॥ सुसंयोग्य पुण्ये लहेजी । लोभे मूलही N जाय । अष्टमी ढाल अमोलकेजी । जो वो अक्का का उपाय ॥ श्रो०॥ २१ ॥
॥ दोहा ॥ अक्काने लागो भूतडो । लोभ तणो विकराल । बारम्बार कहे पुत्री | 12 को। पूछ कहां से दे माल ॥१॥ अग्रह अति जाणी मात को। एकदा अवसर
जोय । ललचाइ पूछे जय भणी । फरमावो गुप्त मोय ॥ २ ॥ इच्छित वस्तु | नित्य प्रते । जो अर्को हम ताय । कहां से लावो स्वामीजी । सच्ची दो फरमाय ॥ | ३ ॥ विजय सुणी चित चिन्तवे । जो राखू में छिपाय । तो तो भंग पडे प्रेम में।।
रखे यह दुःखपाय ॥ ४ ॥ गुप्त कहवो नहीं कोइने । नारी ने तो विशेष । उत्पात | केइ उपजे । यह नीति निरेश ॥ ४ ॥ ॥ श्लोक ॥ न कस्यापि प्रकाशितः।। N गुह्य स्त्रीणां विशेषत । तस्यै तथापि सप्रौच । स्त्रीवस्यं किन कुर्वेत ॥ १॥8॥