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ज०वि० ३२
६ ॥ ढूंढलीवीणी गुप्त स्थान से | तब पाइ चित्त खेम | छिपा रखी तस गुप्त स्थान के । हाथ न लागे जेम ॥ क० ॥ ७ ॥ कालन्तर ते नशो उत्तरीयो । कुमर हुवा सावधान | संभलता ढिग मणी न पाइ । खेद पाया असमान ॥ क० ॥ ८ ॥ समझा मन का मुझ छलीयो । डाली ने मोह फास । मणी हरी कंकर धर्मो से यहां । कीयो मुझ निरास ॥ ० ॥ ६ ॥ ऐसी मदिरा वस्य में डाली । कापीले
सीस । इतो मी लेइ मुझ छोड्यो । करी आत्म वक्सीस ॥ क० ॥ १० ॥ रत अति उपजी चित माही । चिन्ता से प्रज्वले अंग । स्नेह बंध पड्यो कामलता को । तज्यो न जावे संग ॥ क० ॥ ११ ॥ निर्द्रव्य नर कुमर ने जाणी । अक्का तनुजा बोलाय । कहे दारिद्री कहाड घर वाहिर । रहे कुल कृतव्य मांय ॥ ॥ क० ॥ १२ ॥ निर्धनीया से नेह करण को । नहीं अपणो आचार | मान मिठास से वाणी महारी । दे निकाल घर बहार ॥ क० ॥ १३ ॥ कामलता मा वचन सुणीने । मुरझाणी मन मांय । उत्तम कुमर के गुण में लोभाणी । बोले यों नर