Book Title: Samyag Darshan Part 05
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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[सम्यग्दर्शन : भाग-5
किया हुआ सुख, सादि-अनन्त काल में कभी नाश को प्राप्त नहीं होता, वह अनन्त काल रहनेवाला है। 'सादि-अनन्त अनन्त समाधि सुख'-ऐसा सुख, शुद्धोपयोग से ही प्राप्त होता है। अतीन्द्रियसुख में शुभराग का तो कहीं पर नामनिशान नहीं; राग से और राग के फलरूप सामग्री से पार ऐसा वह सुख है। वह सुख प्रगट होने के बाद उसमें कभी भंग नहीं पड़ता, अविच्छिन्नरूप से निरन्तर वह सुख वर्तता है। शुद्धोपयोगी जीवों को ऐसा उत्कृष्ट अतीन्द्रियसुख है, वह सर्वथा इष्ट है, आदरणीय है, प्रशंसनीय है।-शुद्धोपयोग का ऐसा फल बतलाकर आत्मा को उसमें प्रोत्साहित किया है।
जिस प्रकार सूर्य को उष्णता के लिए या प्रकाश के लिये अन्य पदार्थ की आवश्यकता नहीं, स्वयमेव वह उष्ण और प्रकाशरूप है; उसी प्रकार सुख और ज्ञान के लिए आत्मा को किसी अन्य पदार्थ की आवश्यकता नहीं, वह स्वयमेव स्वभाव से ही सुखस्वरूप और ज्ञानस्वरूप है। अहो ! ऐसे आत्मा को श्रद्धा में तो लो। सिद्धों के सुख को पहिचानने पर ऐसा आत्मस्वभाव पहिचानने में आता है। इन्द्रियों से ज्ञान होता है, राग से सुख होता है—ऐसा माननेवाले, सिद्धों और केवलियों को मानते ही नहीं; वीतराग परमेश्वर को वे नहीं जानते, उन्हें तो राग ही मान्य है। रागरहित ज्ञान और सुख प्रतीति में ले तो राग से पृथक् आत्मस्वभाव अनुभव में आ जाये। आचार्य भगवान को स्वयं वैसे अतीन्द्रियसुख का और अतीन्द्रिय ज्ञान का अंश प्रगट हुआ, तब सर्वज्ञ के सुख की और ज्ञान की सच्ची प्रतीति हुई। इस प्रकार सम्यग्दृष्टि ही स्वसंवेदनपूर्वक सर्वज्ञ के परमानन्द की प्रतीति करता है और स्वयं भी वैसे परम अतीन्द्रिय ज्ञान-आनन्द को साधता है।.
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