Book Title: Samyag Darshan Part 05
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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[सम्यग्दर्शन : भाग-5
पराङ्मुख होता है और परम सारभूत शरणरूप अपने ज्ञायकस्वभाव की ओर झुकता है। भेदज्ञान होने पर चैतन्य परमेश्वर पुराण पुरुष प्रकाशमान होता है और अतीन्द्रिय शान्तिसहित ज्ञानज्योति जगमगा उठती है। ऐसा सम्यग्दर्शन है, वह आत्मा ही है। वह सम्यग्दर्शन होने पर विकल्प टूटकर उपयोग स्वसन्मुख ढलता है, अर्थात् भेदज्ञान होकर प्रमाणज्ञान हो गया है; पश्चात् अब उसका उपयोग परसन्मुख जाये, तब भी वह भेदज्ञान प्रमाण तो साथ ही साथ वर्तता है। विकल्प से भिन्न पड़कर चैतन्य में तन्मय हुआ ज्ञान, फिर से कभी विकल्प में एकमेक नहीं होता, पृथक् का पृथक् ही रहता है। इसीलिए उसे मुक्त कहा है : ‘स हि मुक्त एव।' (समयसार कलश, १९८)
यह तो धर्मी की अन्तर की बातें हैं परन्तु बाह्य की कषायें भी बहुत नरम पड़ गयी होती हैं, सात व्यसनों का त्याग होता है, बाह्य संयोगों से उसका चित्त उदास रहता है, चैतन्य की परम शान्ति के समक्ष पुण्य-पाप के भाव उसे भट्टी जैसे लगते हैं । सम्यग्दृष्टि को पहिचानपूर्वक जैसा बहुमान सच्चे देव-गुरु-शास्त्र के प्रति होता है, वैसा मिथ्यादृष्टि को नहीं होता। सम्यग्दृष्टि के व्यवहार परिणाम भी चारों ओर से सुमेलवाले होते हैं।
सम्यग्दर्शन के साथ उसमें नि:शंकता, नि:कांक्षा, साधर्मी प्रेम, धर्म-प्रभावना आदि आठों अंग भी अपूर्व होते हैं। उसे आत्मा के स्वभाव में नि:शंकता के कारण मृत्यु इत्यादि सम्बन्धी सात भय नहीं होते। ज्ञानचेतनारूप हुआ होने से वह कर्मों को तथा कर्म के फल को अपने से अत्यन्त भिन्न जानता है।
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