Book Title: Samyag Darshan Part 05
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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[ सम्यग्दर्शन : भाग-5
अपना स्वरूप केवल चिन्मात्र भासित होने लगता है.... तब सर्व परिणाम उस स्वरूप में एकाग्र होकर प्रवर्तते हैं; तब उसे दर्शनज्ञानादि के, अथवा प्रमाण- नय आदि के विकल्प विलय हो जाते हैं और अभेद - अखण्ड चैतन्यरसमय निजस्वरूप का लक्ष्य होता है... कोई परम शान्ति के वेदनसहित अपना स्वरूप उसे ज्ञात होता है और श्रद्धा में आता है । अहा ! आनन्दधाम मेरे इस आत्मा में किसी विकल्प की आकुलता नहीं। ऐसा साक्षात्कार होने पर शुद्ध परिणति, आनन्दकन्द ज्ञानस्वभाव में ही प्रविष्ट हो गयी है। ज्ञानस्वभाव में तन्मय परिणमित होता हुआ वह आत्मा समस्त विकल्पों से भिन्न पड़ जाता है, उसे आत्मा ही परमात्मरूप से दिखायी देता है; उसे ज्ञान और विकल्प की अत्यन्त भिन्नता भासित होती है; ज्ञान और राग का भेदज्ञान होता है। इस प्रकार ज्ञानस्वभावी आत्मा का निर्णय करता है । वह निर्णय करनेवाला ज्ञान, अन्तर्मुख अतीन्द्रिय होकर भगवान आत्मा को विकल्प से भिन्न आनन्दस्वरूप प्रसिद्ध करता है। वही आत्मा का सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान है ।
पहले जो चैतन्यस्वरूप - स्वभाव का निश्चय किया था, वही ज्ञानस्वभावी आत्मा में अनुभव के समय ऐसा व्याप्य व्यापकरूप होकर प्रवर्तता है कि जहाँ ध्याता - ध्येय का भेद भी नहीं रहता; तब निर्विकल्प आनन्ददशा होती है । अहा... ! धन्य है वह दशा ! धन्य है वह अनुभूति ! निर्विकल्पदशा होने पर, अहो ! आनन्द का झरना बहने लगता है; फिर उसे बाह्य में कहीं चैन नहीं पड़ता। उसे शुभरा में भी बुद्धि रहती है। बस ! उपादेय मात्र एक स्वयं का ज्ञायकतत्त्व ही रहता है ।
सम्यग्दृष्टि जीव, परिणाम में सविकल्प और निर्विकल्प दोनों
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Shree Kundkund - Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.