Book Title: Samyag Darshan Part 05
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai

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Page 208
________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-5] [193 है; कोई ईश्वर उसे कर्म का फल नहीं देता-इन सबकी आस्तिकता होनी चाहिए। चार गति, पुनर्जन्म, कर्मफल इत्यादि का न माने, उसे तो गृहीतमिथ्यात्व है। उसे तो यह एक भी बात कहाँ से समझ में आयेगी? 'बस विकल्प तोड़ो' ऐसा कहे और अन्दर तत्त्व -निर्णय का तो ठिकाना नहीं होता, वह तो मिथ्यादृष्टि है। __ अरे! लोग, भगवान महावीर को ईशु, बुद्ध या गाँधी के साथ तुलना करते हैं। उन्हें तो जैनधर्म की गन्ध भी नहीं है, उनकी श्रद्धा तो जैनधर्म से अत्यन्त विपरीत है। सर्वज्ञ का जैनमार्ग तो कोई अद्भुत, अलौकिक, जगत् से अलग प्रकार का है; दूसरे किसी मार्ग के साथ उसकी तुलना हो—ऐसा नहीं है। यह तो भगवान का मार्ग है और भगवान होने का मार्ग है। प्रत्येक आत्मा सर्वज्ञस्वभावी परमात्मा है, उसका भान होने पर भी, जिसे अभी राग सर्वथा नहीं छूटा हो-ऐसे जीव को फिर अवतार होता है परन्तु वह उत्तम गति में ही जाता है । सम्यग्दर्शन होने के बाद उत्तमदेव और उत्तम मनुष्य के अतिरिक्त सब संसार छेदन हो गया है। सम्यग्दृष्टि जहाँ उत्पन्न हो, वहाँ ओजस्वी -पराक्रमी, तेजस्वी-प्रतापवन्त, विद्यावन्त, वीर्यवन्त, उज्ज्वल -यशस्वी, वृद्धिवन्त, विजयवन्त, महान कुलवन्त, चतुर्विध पुरुषार्थ के स्वामीरूप से उत्पन्न होता है और मानवतिलक होता है अर्थात् समस्त मनुष्यों में तिलक की तरह शोभित होता है। समस्त लोग उसका आदर करते हैं। चक्रवर्ती पद, तीर्थंकर पद भी सम्यग्दृष्टि को ही होता है और ऐसे उत्तम पद को पाकर वह रत्नत्रय की पूर्णता करके मोक्ष को प्राप्त करता है, सम्यग्दर्शन का ऐसा महान प्रताप है। Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.

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