Book Title: Samyag Darshan Part 05
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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[ सम्यग्दर्शन : भाग-5
के चक्र से जीव अब थका है तो उसे सच्चा सुख कहाँ से मिले ?ऐसा परम तत्त्व मुझे बताओ; इस प्रकार अन्तर की जिज्ञासापूर्वक गुरु से स्व-पर की भिन्नता का स्वरूप सुनते-सुनते उसे अधिक विचारने का मन होता है; ज्यों-ज्यों विचार करता है, त्यों-त्यों गहराई में यह बात उसे रुचती जाती है और गुरु वचन में दृढ़तापूर्वक आस्था होती है; अन्ततः तत्त्व प्रतीति होती है और कोई अद्भुत चमत्कारिक चैतन्यतत्त्व उसे कुछ लक्ष्यगत होता है, पश्चात् उसी में अधिक गहरा उतरकर और उसके मनन- चिन्तन में लवलीन बनता है; स्व-पर का अत्यन्त भेद, लक्ष्य में लेकर रागरहित शुद्ध आत्मद्रव्य कैसा होता है, यह विचार करता है । ऐसी विचारधारा में से उसे पहले जो अशान्ति और आकुलता थी, वह अब किंचित कम होने पर उसके पुरुषार्थ को वेग मिलता है, और विश्वास जागृत होता है कि इसी मार्ग से मुझे आत्मा की शान्ति मिलेगी। पश्चात् पुरुषार्थ की स्वसन्मुख गति को वेग प्रदाता, संसार से विरक्तता प्रेरक, बारह भावना विचारता है । पुण्य-पाप की शुभाशुभ वृत्तियों को आकुलता समझकर उनसे पार चैतन्य में चित्त जोड़ने हेतु यत्नशील होता है । जैसे-जैसे यत्न करता है, वैसे-वैसे उसकी उलझन मिटती जाती है और आत्मा का चित्रण स्पष्ट होता जाता है।
व्यवहार के प्रसंगों से अलग रहकर, अन्दर ज्ञान और राग की भिन्नता को अनुभव करने के लिये बारम्बार प्रयत्न करता है ।— शोक के बाह्य प्रसंगों में आज तक तीव्र गति से जाती, वृत्तियाँ अब शमन होने लगती है और विचार की दिशा बारम्बार चैतन्य की ओर ढला करती है । इसलिए बाह्य प्रसंगों में उसका चित्त उदास रहता होने से मानो खोया-खोया सा रहा करता है ।
Shree Kundkund - Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.