Book Title: Samyag Darshan Part 05
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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[सम्यग्दर्शन : भाग-5
प्रथम तो आत्मा का कल्याण करने की बुद्धि जागृत होना चाहिए कि किसी भी प्रकार मुझे मेरे आत्मा का हित करना है। इसके लिए सत्यधर्म की शोध, संसार के अशुभनिमित्तों के प्रति आसक्ति में मन्दता, ब्रह्मचर्यादि का रंग, कुदेवादि के सेवन का त्याग, सच्चे देव-गुरु-धर्म के प्रति उल्लास-भक्ति, साधर्मियों का प्रेम-आदर, सत्यधर्म की परम रुचि और आत्मा की तीव्र जिज्ञासा -ऐसे भावों की भूमिका, वह सम्यक्त्व के लिये क्षेत्रविशुद्धि है;
और अन्तर में राग से भिन्न ज्ञानस्वभाव का निर्णय करके बारम्बार उसका घोलन, वह सम्यक्त्व को लिये बीज है। जीवों की दया पालना इत्यादि शुभपरिणामवाले बहुत जीव होते हैं परन्तु वे सब कोई आत्मज्ञान नहीं पाते; इसलिए दया इत्यादि शुभपरिणाम, वह कोई सम्यग्दर्शन का कारण नहीं-तो हिंसा, असत्य इत्यादि पाप भावों में डूबे हुए जीवों को तो आत्महित का विचार ही कहाँ है ? भाई! आत्मा का हित तो अशुभ और शुभ समस्त राग से पार, अन्तर के ज्ञानानन्दस्वभाव के आश्रय से है।
सम्यक्त्वसन्मुख जीव जानता है कि मेरी पर्याय में राग होने पर भी, इतना ही मैं नहीं। भूतार्थस्वभाव से देखने पर रागरहित चिदानन्दस्वभाव का मुझे अनुभव होगा। जिस समय क्षणिक पर्याय में रागादि है, उस समय ही त्रिकाली स्वभाव आनन्द से परिपूर्ण है। उस स्वभाव का स्वीकार और सत्कार करने से पर्याय में भी राग
और ज्ञान की भिन्नता का अनुभव होता है; वहाँ अकेला राग नहीं वेदन में आता; राग से भिन्न अतीन्द्रियज्ञान और सुख भी अनुभव में आता है। राग हो, वह अल्पदोष है; रागरहित स्वभाव का आदर होने से वह राग छूट जायेगा परन्तु राग को मोक्षमार्ग माने तो उसमें
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