Book Title: Samyag Darshan Part 05
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-5]
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महान हूँ? कैसा मेरा कार्य है? – ऐसे अपने आत्मा सम्बन्धी अनेक प्रकार के विचार में ज्ञान को विस्तरित करता है। जैसे-जैसे विचारधारा विस्तरित करता जाता है, वैसे-वैसे ज्ञान की दृढ़ता बढ़ती जाती है और विकल्प की ओर का जोर टूटता जाता है तथा निर्णय में अस्तिरूप ज्ञानस्वभाव की ओर का जोर बढ़ता जाता है और अधिक से अधिक स्पष्ट भावभासन होता जाता है कि अहा! ऐसा चैतन्यतत्त्व मैं ही हूँ। अनन्त गुणों के पिण्डरूप एक स्वरूप चैतन्यमय ही मैं हूँ; मैं मात्र चेतना-चेतनामय ही हूँ। मेरी चेतना में आनन्द इत्यादि अनन्त स्वभाव समाहित होते हैं, परन्तु रागादि कोई परभाव उसमें समाहित नहीं होते; वे तो चेतना से भिन्न ही स्वरूपवाले हैं, एक स्वरूप नहीं। ऐसे विचार द्वारा भेदज्ञान की दृढ़ता होती जाती है।
पहले तो विचार में गुण-पर्याय के विचार आते थे, तथा 'मैं ऐसा नहीं अर्थात् रागवाला, शरीरवाला कर्मवाला या भेदवाला मैं नहीं'-ऐसे नास्ति के विचार आते थे परन्तु अब तो वे विचार गौण होकर अस्ति स्वभाव के विचार की ही मुख्यता वर्तती है-अर्थात् 'ऐसा स्वभाव हूँ'-ऐसी गम्भीर महिमापूर्वक स्वसन्मुख होता जाता है और उस स्वभाव का साक्षात् वेदन करने के लिये वह जीव ऐसा ओतप्रोत बन जाता है कि उसे कहीं चैन नहीं पड़ता, अन्यत्र कहीं बाहर में लक्ष्य स्थिर नहीं होता। सूक्ष्म विकल्प भी छूटते जाते हैं और ज्ञान अधिक से अधिक गम्भीर होता जाता है। आत्मा के चिन्तन की धुन में उपयोग ऐसा सूक्ष्म होता जाता है कि बाहर में तो कहीं रुचता नहीं, परन्तु अन्दर सूक्ष्म विकल्प रहें, उनमें भी चैन नहीं पड़ता, उनसे छूटकर अन्तर के स्वभाव में
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