Book Title: Samyag Darshan Part 05
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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[ सम्यग्दर्शन : भाग-5
हुई है, उस दशा को अन्य जीव स्वीकार करें या न स्वीकारें, उसकी अपेक्षा नहीं है; अपने को तो अपने वेदनपूर्वक आराधना चल ही रही है, उसमें वह निशंक है । ' यह सच्चा होगा या नहीं'ऐसी शंकारूपी विकल्प उसे उत्पन्न नहीं होता । बाह्य अनेक कार्यों में जुड़ता दिखाई देने पर भी, वह तो उनसे अलिप्त ही है।
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अज्ञानी जीवों को ऐसा लगता है कि यह धर्मी जीव सांसारिक कार्य में जुड़ता है और क्रोधादि करता है, परन्तु वास्तव में अन्तरंग में राग से भिन्न पड़ी हुई उसकी चेतना, बाह्य एक भी कार्य में नहीं जुड़ती है तथा क्रोधादिक से भी वह भिन्न ही रहती है। स्वभाव -सन्मुख तल्लीन हुई श्रद्धा - ज्ञानादि की वीतरागपरिणति, बाहर के किसी भी विकल्प को या कार्य को अपने कार्यरूप से स्वीकार नहीं करती; इसलिए धर्मी उनका अकर्ता ही है ।
एक बार निर्विकल्प शुद्धोपयोगी होकर महा आनन्द का जो अनुभव किया, पश्चात् विकल्प में आने पर भी उस विकल्प से भिन्न ज्ञान-आनन्द की परिणति में वह जीव रम रहा है । आहा... हा...! ऐसा आनन्दमय अखण्ड आत्मा मैं हूँ- एक क्षण भी उसका विस्मरण नहीं होता । भेदज्ञान की अपूर्व कला खिल गयी है। भले ज्ञानोपयोग बाहर में हो और शुभ-अशुभ परिणाम वर्तते हों, तथापि स्व-पर के विवेकरूप भेदज्ञान सदा वर्त रहा है। शुद्ध आत्मतत्त्व में एकत्व - बुद्धिरूप निर्विकल्प श्रद्धा भी वर्तती ही है और चैतन्य के वेदन का परमसुख भी आत्मा की अखण्ड आराधना में अभेदरूप से वर्त ही रहा है। ज्ञानी को ऐसी अद्भुतदशासहित की समस्त स्थिति होती है। उसकी सर्व स्थितियों में 'जगत् इष्ट नहीं आत्म से'
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