Book Title: Samyag Darshan Part 05
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-5]
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मैं भगवान आत्मा हूँ - ऐसा जो निर्विकल्प शान्तरसरूप अनुभव में आता है, वही सम्यग्दर्शन है। स्वानुभूति के अनेक भावों से उल्लसित शान्तरस का समुद्र आत्मा स्वयं सम्यग्दर्शनस्वरूप है।
परभावों से भिन्न और निजस्वभावों से परिपूर्ण ऐसे आत्मा को अनुभव में लेता हुआ सम्यग्दर्शन प्रगट होता है। ऐसे पूर्ण शुद्ध आत्मा को अनुभव में देखते ही समस्त विकल्पजाल विलय को प्राप्त होते हैं, अर्थात् ज्ञानपर्याय अन्तर्मुख लीन होकर अभेदरूप आत्मा को अनुभव करती है। सम्यग्दर्शन होते समय अनुभव में आया हुआ अचिन्त्य चेतनतत्त्व, धर्मी जीव की प्रतीति में से कभी नहीं छूटता; उसी तत्त्व की प्रतीतिपूर्वक आगे बढ़ते-बढ़ते वह परमात्मा होता है। - ऐसी परमात्मदशा का कारण सम्यग्दर्शन जयवन्त वर्तो!.
(एक मुमुक्ष)
ज्ञान जगत का सिरताज है; ज्ञान आनन्द का धाम है।
ज्ञान की अचिन्त्य महानता के समक्ष रागादि परभावों का कोई जोर नहीं चलता; ज्ञान से वे सर्व परभाव भिन्न ही रहते हैं। ज्ञान तो किसी परभाव से न दबे, ऐसा महान है । हे जीव! ऐसे ज्ञानरूप ही तू अपने को चिन्तवन कर।
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