Book Title: Samyag Darshan Part 05
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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[सम्यग्दर्शन : भाग-5
अपने चैतन्यतत्त्व की शान्ति को नहीं चूकता। जैसे स्वर्ण, अग्नि में तपने पर भी स्वर्ण ही रहता है; उसी प्रकार संयोग और राग-द्वेष के मध्य भी धर्मात्मा का ज्ञान, वह ज्ञान ही रहता है। राग से भिन्न ज्ञानतत्त्व की अनुभूति धर्मी को सदा वर्तती है और वही मोक्ष का साधन है। उस धर्मी जीव को चैतन्य के आनन्द की ऐसी खुमारी होती है कि दुनिया कैसे प्रसन्न होगी और दुनिया मेरे लिए क्या बोलेगी - यह देखने को रुकता नहीं है। लोकलाज को छोड़कर वह तो अपनी चैतन्य साधना में निमग्न है।
जिस प्रकार आकाश के मध्य अधर अमृत का कुआँ हो, वैसे मेरा चैतन्य गगन निरालम्बी और आनन्द के अमृत से भरपूर है; उस आनन्द का स्वाद लेने में बीच में रागादि के अवलम्बन की आवश्यकता नहीं रहती। अपने कार्य के लिए दूसरे का अवलम्बन माँगना तो कायर का काम है; मोक्ष के साधक शूरवीर होते हैं, किसी के अवलम्बन बिना अपने स्वावलम्बन से ही वे अपने मोक्ष कार्य को साधते हैं।
जिसे आत्मा की लगन लगी है -ऐसे जीव को आत्मा की अनुभूति के अतिरिक्त अन्य किन्हीं परभावों में या संयोगों में कहीं चैन नहीं पड़ता, उसे अपने चैतन्य की ही धुन लगी होती है। दुनिया मेरे लिये क्या मानेगी और क्या कहेगी - यह देखने को वह रुकता नहीं है। वह कहता है कि दुनिया, दुनिया के घर रही; मुझे तो दुनिया को एक ओर रखकर मेरा आत्महित कर लेना है - इस प्रकार आत्मसन्मुख जीव को दुनिया का रस छूट जाता है और चैतन्य का स्वाद लेने में उपयोग ढलता है। उसे ज्ञान और विकल्प की भिन्नता भासित होती है कि विकल्प का एक अंश भी मेरे ज्ञान
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