Book Title: Samyag Darshan Part 05
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-5]
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ऋद्धि-सिद्धि भरी हुई है।
रिद्धि-सिद्धि-वृद्धि दीसे घट में प्रगट सदा, अंतर की लक्ष्मी सो अजाची लक्षपति है; दास भगवंत को उदास रहे जगत सों,
सुखिया सदैव ऐसे जीव समकिती हैं। समकिती धर्मात्मा गृहस्थपने में रहने पर भी, अपने आत्मा को ऐसा अनुभव करते हैं। मेरी चैतन्य ऋद्धि-सिद्धि सदा ही मेरे अन्तर में वृद्धिगत है। मेरे अन्तर की चैतन्य-लक्ष्मी का मैं स्वामी हूँ। जगत से कुछ लेना नहीं। वह जिनभगवान का दास है और जगत से उदास है। सम्यग्दर्शन ही धर्म के सर्व अंगों को सफल करता है । क्षमा-ज्ञान-आचरण इत्यादि सम्यग्दर्शन बिना धर्म नाम प्राप्त नहीं करते । सम्यग्दर्शन बिना ज्ञान, वह अज्ञान है; आचरण, वह मिथ्याचारित्र है और क्षमा वह अनन्तानुबन्धी क्रोधसहित है; इसीलिए सम्यग्दर्शन से ही क्षमा-ज्ञान-चारित्र इत्यादि की सफलता है। ___ धर्मात्मा को स्वप्न में भी चैतन्य और आनन्द की महिमा भासित होती है। सम्यक्त्व में कोई भी दोष स्वप्न में भी नहीं आने देता। ऐसे समकिती धर्मात्मा जगत में धन्य है, वे ही सुकृतार्थ है, वे ही शूरवीर हैं, वे ही पण्डित और मनुष्य हैं। भले शास्त्र पढ़े न हों, पढ़ना या बोलना न आता हो, तथापि वह महापण्डित है; उसने बारह अंग का सार जान लिया है; करनेयोग्य उत्तम कार्य उसने किया है; इसलिए वह सुकृतार्थ है। युद्ध में हजारों योद्धाओं को जीतनेवाला लोक में शूरवीर कहलाता है परन्तु हजारों योद्धाओं को
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