Book Title: Samyag Darshan Part 05
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-5]
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आकाशगामिनी चारणऋद्धि प्राप्त की है। हे आर्य! हम दोनों ने अवधिज्ञानरूपी नेत्र से जाना कि तुम यहाँ भोगभूमि में उत्पन्न हुए हो; पूर्वभव में आप हमारे परममित्र थे, इसलिए आपको प्रतिबोध करने के लिए हम यहाँ आये हैं।
श्री मुनिराज परम करुणा से कहते हैं - हे भव्य! त पवित्र सम्यग्दर्शन बिना केवल पात्रदान की विशेषता से ही यहाँ उत्पन्न हुआ है-यह बात निश्चय समझ। महाबल के भव में भी तू मुझसे तत्त्वज्ञान पाया था परन्तु उस समय भोगों की आकांक्षा के वश तू दर्शनशुद्धि को प्राप्त नहीं कर सका था। अब हम दोनों, सर्वश्रेष्ठ तथा मोक्ष के सुख का मुख्य साधन सम्यग्दर्शन देने की इच्छा से यहाँ आये हैं... इसलिए हे आर्य! आज ही तू सम्यग्दर्शन ग्रहण कर! ___आहा ! मुनिराज के श्रीमुख से परम अनुग्रहयुक्त ये वचन सुनते ही वज्रजंघ का आत्मा कोई अनोखी प्रसन्नता और अद्भुत शान्ति अनुभव करता था। ___ प्रीतिकर मुनिराज परम अनुग्रहपूर्वक वज्रजंघ के आत्मा को सम्यग्दर्शन अंगीकार कराते हुए कहते हैं कि हे आर्य! तू अभी ही सम्यग्दर्शन को ग्रहण कर... यह तेरा सम्यक्त्व के लाभ का काल है। तद्गृहाणाद्य सम्यक्त्वं तल्लाभे काल एष ते
रे ग्रहण कर सम्यक्त्व को, तत्प्राप्ति का है काल यह।
देशनालब्धि इत्यादि बहिरंगकारण और करणलब्धिरूप अन्तरंग -कारण द्वारा भव्यजीव दर्शनविशुद्धि पाते हैं । जैसे सूर्य का उदय होने पर, रात्रिसम्बन्धी अन्धकार दूर हो जाता है, इसी प्रकार सम्यक्त्वरूप सूर्य का उदय होने पर मिथ्यात्व-अन्धकार नष्ट हो
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