Book Title: Samyag Darshan Part 05
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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[सम्यग्दर्शन : भाग-5
शान्त हुए हाथी को सम्बोधन करके कहा-अरे बुद्धिमान ! यह पागलपन तुझे शोभा नहीं देता। यह पशुता और यह हिंसा तू छोड़! पूर्वभव में तू मरुभूति था; तब मैं अरविन्द राजा था, वह मुनि हुआ हूँ और तू मेरा मन्त्री था, परन्तु आत्मा का भान भूलकर तू आर्तध्यान से इस पशुपर्याय को प्राप्त हुआ है... इसलिए हे गजराज! अब तो तू चेत... और आत्मा को पहिचान। ___मुनिराज के मधुर वचन सुनकर हाथी को अत्यन्त वैराग्य हुआ, उसे अपने पूर्वभव का जातिस्मरणज्ञान हुआ। अपने दुष्कर्म के प्रति उसे बहुत पश्चाताप हुआ; उसकी आँखों से आँसुओं की धारा गिरने लगी। विनय से मुनिराज के चरणों में सिर झुकाकर, उनके सन्मुख देखता रहा... सहज ही उसका ज्ञान इतना खिल गया कि वह मनुष्य की भाषा समझने लगा... और मुनिराज की वाणी सुनने के प्रति उसे जिज्ञासा जागृत हुई। ___ मुनिराज ने देखा कि इस हाथी के जीव के परिणाम अभी विशुद्ध हुए हैं, इसे आत्मा समझने की तीव्र जिज्ञासा जागृत हुई है...
और यह एक होनहार तीर्थंकर है... इसलिए अत्यन्त प्रेम से / वात्सल्य से वे हाथी को उपदेश देने लगे-अरे हाथी! तू शान्त हो। यह पशुपर्याय कहीं तेरा स्वरूप नहीं है, तू तो देह से भिन्न चैतन्यमय आत्मा है। आत्मा के ज्ञान बिना अनेक भवों में तूने बहुत दुःख भोगे हैं। अब तो आत्मा का स्वरूप जान और सम्यग्दर्शन को धारण कर। सम्यग्दर्शन ही जीव को महान सुखकर है। राग और ज्ञान को एकमेक अनुभव करने का अविवेक तू छोड़... छोड़ ! तू प्रसन्न हो... सावधान हो... और सदा उपयोगरूप स्वद्रव्य ही मेरा है-ऐसा तू अनुभव कर। इससे तुझे बहुत आनन्द होगा।
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