Book Title: Samyag Darshan Part 05
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai

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Page 56
________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-5] [ 41 दुःख के भाव में कैसे बसे ? राजा कचरे में सोये, यह कहीं उसे शोभा देता है ? नहीं; यह तो उसके लिये अपद है । राजा का स्थान तो हीराजड़ित सिंहासन में होता है। इसी प्रकार जगत में श्रेष्ठ ऐसा यह आत्मभगवान, ज्ञान - आनन्दमय अपने शान्तिधाम में बसनेवाला है; इन रागादि अशुद्धभावों के कचरे में लीन होकर उसमें सुख माने-यह कहीं उसे शोभा देता है ? नहीं; वह तो उसके लिये अपद है, दुःख है, अशोभा है । आत्मभगवान का स्थान तो अपने अनन्त गुणों की निर्मलपरिणति में होता है; इस प्रकार निजपद बतलाकर, श्रीगुरु इसे जगाते हैं कि अरे भगवान ! तू जाग रे जाग ! अपार महिमा से भरपूर तेरे शुद्ध चैतन्यपद को तू सम्हाल ! तू अनादि अज्ञान से परपद में सो रहा है... निजपद को भूलकर अन्ध हुआ है... हे जीव ! अब तो तू जाग ! भेदज्ञान चक्षु खोलकर तेरे अन्तर में सुखधाम को देख ! तेरा पद कैसा सुन्दर है ! शुद्ध बुद्ध चैतन्यघन स्वयं ज्योति सुखधाम, बीजुं कहीये केटलुं ? कर विचार तो पाम । अहा ! अनन्त सुख का धाम ऐसा चैतन्यपद, उसे सन्त दिन - रात अपने अन्तर में ध्याकर अपूर्व आनन्द का अनुभव करते हैं भगवान ! तू भी ऐसे तेरे सुखधाम में आ । राग के वेदन से अनन्त काल तू संसार में भटका, अब वहाँ से वापस मुड़... और इस ओर आ... इस ओर आ। तेरा चैतन्यपद महा आनन्दमय है, उसे तेरे अन्तर में तू देख। जाग रे जाग ! अभी यह जागने का अवसर है, निजपद के आनन्द को साधने का यह अवसर है। इस संसार के दुःख के वेदन से तुझे छूटना हो और चैतन्य की Shree Kundkund - Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.

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