Book Title: Samyag Darshan Part 05
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-5]
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आनन्दमय चैतन्यपद की ओर आओ। सन्त आवाज लगाकर बुलाते हैं कि इस ओर आओ... इस ओर आओ।
जिसमें कोई विकल्प नहीं-ऐसा यह निर्विकल्प एक ही चैतन्यपद आस्वादनयोग्य है। सम्यग्दर्शन में चैतन्य का स्वाद है, सम्यग्ज्ञान में चैतन्य का स्वाद है, सम्यक्चारित्र में भी चैतन्य का स्वाद है। रागादि परभाव का स्वाद तो रत्नत्रय से बाहर है; निजपद में राग का स्वाद नहीं है। राग तो दुःख है, विपदा है; चैतन्यपद में विपदा नहीं है। जिसमें आपदा, वह अपद; जिसमें आपदा का अभाव और सुख का सद्भाव, वह स्वपद। आनन्दस्वरूप आत्मा की सम्पदा से जो विपरीत है, वह विपदा है। राग, वह चैतन्य की सम्पदा नहीं परन्तु विपदा है; वह आत्मा का अपद है। जैसे राजा का स्थान मलिन कचरे में नहीं शोभा देता, राजा तो स्वर्ण के सिंहासन पर शोभता है; इसी प्रकार जीवराजा का स्थान राग-द्वेष -क्रोधादि मलिनभावों में शोभा नहीं देता, उसका स्थान तो अपने शुद्ध चैतन्य सिंहासन में शोभता है। राग में चैतन्य राजा शोभा नहीं देता; वह तो अपद है, अस्थिर है, मलिन है, विरुद्ध है; चैतन्यपद शाश्वत् है, शुद्ध है, पवित्र है, अपने स्वभावरूप है। ऐसे शुद्ध स्वपद को, हे जीवों! तुम जानों... उसे स्वानुभव प्रत्यक्ष करो। ऐसी निजपद की साधना, मोक्ष का उपाय है।
अहा! निजानन्द में डोलता चैतन्यपद, शान्तरस के पिण्डरूप निजपद, यह आत्मा स्वयं है। बाहर में देखने का रस छोड़कर स्वयं अपने चैतन्यपद को निहारने से परम आनन्द होता है। ऐसे आनन्दमार्ग में वीतरागी सन्त बुलाते हैं और मुमुक्षु उत्साह से उस आनन्दमार्ग में जाते हैं।
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