Book Title: Samyag Darshan Part 05
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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[ सम्यग्दर्शन : भाग-5
अन्तर में तेरा मार्ग है । अन्तर में आ... आ । सन्त, प्रेम से तुझे मोक्ष के मार्ग में बुलाते हैं। अभी सोने का अवसर नहीं है, अभी तो जागकर मोक्ष को साधने का अवसर है।
अहा, ऐसे मार्ग में कौन नहीं आयेगा !! कौन विभाव को छोड़कर स्वभाव में नहीं आयेगा ? बाहर के राजवैभव को छोड़कर अन्तर के चैतन्य वैभव को साधने के लिये राजा और राजकुमार अन्तर के मार्ग में गमनशील हुए। बाहर के भाव अनन्त काल से किये, अब उन्हें छोड़कर मेरा परिणमन अन्दर मेरे निजपद में झुकता है, अब उस परभाव के पन्थ में मैं नहीं जाऊँगा.... नहीं जाऊँगा... नहीं जाऊँगा..... अन्तर के मेरे चैतन्यपद में ही रहूँगा । इस प्रकार स्वानुभूतिपूर्वक धर्मी जीव, निजपद को साधता है.... और दूसरे जीवों को भी कहता है कि हे जीवों ! तुम भी इस मार्ग में आओ रे आओ ! अन्तर में देखा हुआ जो मोक्ष का मार्ग, आनन्द का मार्ग, वह बतलाकर सन्त बुलाते हैं कि हे जीवों ! तुम भी हमारे साथ इस मार्ग में आओ... इस मार्ग में आओ। अविनाशीपद का यह मार्ग है... यह सिद्धपद का मार्ग है।
आत्मा स्वयं सत्य अविनाशी वस्तु है । उसके अनुभव से हुआ सुख शाश्वत् अविनाशी है । आत्मा का आनन्द तो स्वयं में है; पर में कहीं आनन्द नहीं है । जिसमें आनन्द न हो, उसे निजपद कैसे कहा जाये ? निजपद तो उसे कहते हैं कि जिसमें आनन्द हो । जिसका स्वाद लेने पर, जिसमें रहने पर, जिसमें स्थिर होने पर, आत्मा को सुख का अनुभव हो, वह निजपद है । जिसके वेदन में आकुलता हो, वह निजपद नहीं; वह तो परपद है; आत्मा के लिए अपद है। उसे अपद जानकर, उससे पराङ्मुख होकर इस शुद्ध
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