Book Title: Samyag Darshan Part 05
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
View full book text
________________
www.vitragvani.com
सम्यग्दर्शन : भाग-5]
[23
सस्ता साहित्य बहुत प्रचार करनेयोग्य है । अन्यत्र बड़ा खर्च करने की अपेक्षा ऐसे परम सत्य का प्रचार हो, वैसा साहित्य 'सरल और सस्ता' बहुत बाहर आवे, वह करनेयोग्य है। यद्यपि सोनगढ़ से बहुत साहित्य प्रकाशित हुआ है और लोग भी बहुत पढ़ते हैं। दस लाख पुस्तकें तो प्रकाशित हो गयी हैं । तथापि अभी बहुत साहित्य सबको समझ में आवे, वैसी सरल भाषा में और सस्ती कीमत में अधिक से अधिक प्रकाशित हो और सच्चे ज्ञान का प्रचार हो, वैसा करनेयोग्य है। अभी तत्त्व के जिज्ञासु बहुत लोग तैयार हुए हैं और आत्मा के स्वभाव की ऐसी उत्कृष्ट बात प्रेम से सुनते हैं । जिज्ञासु लोगों के भाग्य से ऐसा वीतरागी सत्य बाहर आया है।
मैं स्वयं ज्ञानस्वभाव आत्मा हूँ - ऐसा पहले अन्दर निर्णय करना चाहिए। ज्ञान है, वह राग को जानता है परन्तु स्वयं रागरूप नहीं होता । ज्ञान की ताकत में राग ज्ञात हो जाता है, परन्तु अन्तर में उपयोग को जोड़कर जो शुद्ध आत्मा को अनुभव करता है, उसे तो उस काल में शुद्धनय से शुद्ध परमभाव का ही अनुभव है । उस समय तो व्यवहार का लक्ष्य भी नहीं है । व्यवहार के काल में व्यवहार का ज्ञान होता है; इसलिए उस काल में उस व्यवहार का ज्ञान प्रयोजनवान है परन्तु शुद्ध आत्मा की अनुभूति के निर्विकल्प आनन्द के अवसर में तो व्यवहार का कोई प्रयोजन नहीं है; उसमें तो अभेद का ही साक्षात् अनुभव है। पर्याय में भले रागादि हों परन्तु शुद्धनय द्वारा देखने से राग एक ओर रह जाता है और शुद्ध आत्मा परमभावरूप से अनुभव में आता है। ऐसा अनुभव, वह आत्मा का जीवन है, वह सम्यग्दर्शन है। जैसे स्वर्णकार सोना और लाख को शामिल गिनकर कीमत नहीं गिनता परन्तु लाख को भिन्न करके
Shree Kundkund - Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.