Book Title: Samyag Darshan Part 05
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-5]
में ज्ञेयरूप से उस-उस प्रकार का व्यवहार ज्ञात होता है । व्यवहार में तन्मय हुए बिना साधक उसे जानता है। शुद्धद्रव्य के ज्ञान के साथ अपनी पर्याय का भी ज्ञान होता है और वह ज्ञान, साधक को उस-उस काल में प्रयोजनवान है । उस काल में अर्थात् जब विकल्प है, पर्याय पर लक्ष्य जाता है, तब वह पर्याय का ज्ञान करता है। जिसे शुद्ध आत्मा के अनुभव में लीनता ही है, उसे तो विकल्प ही नहीं है, पर्याय के भेद का लक्ष्य ही नहीं है; इसलिए उसे उस व्यवहार को जानने का प्रयोजन नहीं रहा, वह तो साक्षात् परमार्थ शुद्ध आत्मा को ही अनुभव करता है।
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सम्यग्दृष्टि जीव की छोटी से छोटी दशा को ज्ञान की जघन्यदशा कहा जाता है, केवलज्ञान हो, वह ज्ञान का उत्कृष्टभाव है । इसके अतिरिक्त साधकदशा के जितने प्रकार हैं, वे सब मध्यमभाव हैं I अब व्यवहारनय तो परद्रव्य के सम्बन्ध से अशुद्धभाव को कहनेवाला है, अर्थात् पर्याय की अशुद्धता को वह दिखलाता है । परमार्थ में शुद्ध आत्मा का ही अनुभव है । साधक को ऐसे शुद्ध आत्मा का अनुभव हुआ है, इसलिए पर्याय में भी कितनी ही शुद्धता प्रगट हुई है और अभी पर्याय में कितनी ही अशुद्धता भी है । सविकल्पदशा में रागादिभाव होते हैं- ऐसे दोनों प्रकार साधक को एकसाथ वर्तते हैं । उनमें जब परमशुद्धस्वभाव के अनुभव में स्थिर नहीं और विकल्पदशा में है, तब पर्याय की शुद्धता - अशुद्धता इत्यादि प्रकारोंरूप व्यवहार को भी वह जानता है । व्यवहार में उत्सुकता न होने पर भी, व्यवहार के प्रकार उसके ज्ञान में ज्ञेयरूप से ज्ञात हो जाते हैंऐसा स्व-पर प्रकाशक ज्ञान प्रयोजनवान है; राग का या व्यवहार का आश्रय करनेयोग्य है - ऐसा इसका अर्थ नहीं, परन्तु ज्ञान में ज्ञात
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