Book Title: Samipya 2007 Vol 24 Ank 01 02
Author(s): R P Mehta, R T Savalia
Publisher: Bholabhai Jeshingbhai Adhyayan Sanshodhan Vidyabhavan

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Page 40
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org - 'नमन' कहते हैं । इस वर्ण के ऊपर "न" के द्वारा द्योतित किया जाता है जैसे 'आमो ऽ ३ वा' । वि- शुद्ध प्रथम स्वर का उच्चार जब द्वितीय स्वर तक किया जाता है तो उसे 'विनत' कहते हैं । इस वर्ण के ऊपर "वि” के द्वारा द्योतित किया जाता है, जैसे 'अग्निनोर' । नमन और विनित दोनों में प्रथमादि और द्वितीयान्त स्वर ही होता है अन्तर इतना है कि नमन में शुद्ध द्वितीय को प्राप्त होता है, जबकि विनत प्रथम शुद्ध स्वर से सीधा वर्ण के मध्य में स्थित द्वितीय को प्राप्त होता है । विनत सदैव 2 स्वरों में होता है । 2 सामयोनि ऋगत दीर्घ अक्षर जब सामगान में भी दीर्घाक्षर रहता है, उसमें वृद्धि नहीं होती तो उसके सामगान में वर्ण के ऊपर "2" से चिह्नित किया जाता है । सङ्केत चिह्न सामगान-संहिता में प्राप्त होनेवाले सङ्केत चिह्न - इस प्रकार है। - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - पडीरेखा (-) : पूर्ववर्ती प्रथम स्वर की द्वितीय स्वर तक भी वृद्धि को प्रदर्शित करने के लिये द्वितीय स्वर को पड़ी रेखा (-) से चिह्नित किया जाता है, जैसे 'तुइन्दावऽर: ' ( sī) अवग्रह (S) : पूर्ववर्ती वर्ण के स्वर को आगे जारी रखने को अवग्रह (S) के द्वारा प्रदर्शित किया जाता है, अग्निर्महोऽ 23 नो 53म् । वक्रचिह्न (^) : पूर्ववर्ती वर्ण के स्वर को अग्रिम वर्ण तक जारी रखने के वक्र चिह्न से द्योतित किया जाता है । जैसे पारर्थ । यह बात उल्लेखनीय है कि कहीं कहीं इस चिह्न का प्रयोग ऐसे वर्णों पर भी मिलता है जिनके पूर्व अवग्रह नहीं होता जैसे S3 ताई। ऐसी स्थिति में ऐसा प्रतीत होता है कि यह चिह्न पूर्ववर्ती स्वर का अलगे स्वर तक जारी रखना संकेतित करता है । यह वक्र चिह्न वर्ण, वर्णों के मध्य में अङ्कों तथा अवग्रह को उपर दिखाया जाता है । दक्षिण भारत के हस्तलिखित ग्रंथों में वर्णों के मध्य कुछ व्यंजन वर्णों को भी लिखा गया है । ये, ता, चो, ना, क आदि व्यंजन विभिन्न स्वरों के द्योतक माने जाते हैं । इन विभिन्न स्वरांकन प्रकारों से ऐसा प्रतीत होता है यह स्वरांकन पद्धति बहुत प्राचीन नहीं है । - सामस्वरों का गात्रवीणा पर सङ्केत जिस प्रकार उदात्त, अनुदात्त और स्वरित को शुक्ल यजुर्वेदियों की परम्परा में हस्त संचालन द्वारा प्रदर्शित किया जाता है उसी प्रकार सामगायकों की परम्परा में सप्त स्वरों का उच्चारण हाथ की अङ्गुलियों के विभिन्न स्थानों के स्पर्श के साहचर्य द्वारा भी दिखाया जाता है । सामगान करते समय हाथ की अङ्गुलियों पर स्वरों का आरोप कर कृत्रिम भाव से सुर कायम रखने की पद्धति ही गात्रवीणा कहलाती है । नारद ने गात्रवीणा को सामगान में सहायक माना है । ना.शि. में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि सामगायकों की परम्परा में गान के समय दारवी अर्थात् काष्ठ से निर्मित तथा गात्रवीणा इन दोनों प्रकार की वीणाओं का प्रयोग किया जाता है । दारवी वीणा को सामगान करने के पूर्व सुर में मिलाया जाता है । वीणा के सभी तारों को साम के अनुस्वार स्वर में मिलाते है लेकिन गात्रवीणा में ऐसा नहीं होता । ना. शि. में यह कहा गया है कि गात्रवीणा में दोनों हाथों को दोनों जानुओं पर सीधा रखा जाता है एवं दोनो हाथों की अङ्गुलिया प्रसारित अवस्था में रहती है । अंगुष्ठ से अङ्गुलियों के मध्यमपर्व का स्पर्श किया जाता है क्योंकि यहीं पर स्वरमण्डल स्थापित किया जाता | सामगान के स्वरानुसार इस त्रिरेखा के मध्यस्थल से एक-एक यव के न्तर पर स्वर अङ्कित किये जाते हैं, अर्थात् रंग से एक एक रेखा अङ्कित की जाती है । मात्रा कायम करने के लिये बायें हाथ की अंगुलियों सामवेद में स्वर - सिद्धान्त पद्धति विषयक निरूपण I For Private and Personal Use Only 39

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