Book Title: Samipya 2007 Vol 24 Ank 01 02
Author(s): R P Mehta, R T Savalia
Publisher: Bholabhai Jeshingbhai Adhyayan Sanshodhan Vidyabhavan
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वेदोक्त यह कथा ब्राह्मणादि ग्रन्थों में आख्यान के रूप में पहुँची । यहाँ भी 'आख्यान' का अर्थ प्रवर्तमान रूढार्थ अभिप्रेत नहीं है; परन्तु “आ समन्तात् (विविधैः ऋषिभिः विद्वद्भिः वा) ख्यायते कथ्यते तत् आख्यानम्" अर्थात् जो चारों ओर का ध्यान रख कर विवध ऋषियों व विद्वानों के द्वारा कहा जाता है, वह 'आख्यान' है। - इस प्रकार का यौगिकार्थ अभिप्रेत है । कथा से आख्यान का उद्भव हुआ है । 'कथा' में कहने वाला परमात्मा है। कथनीय विषयवस्तु सर्वविध ज्ञान है। बाद में यही कथा विविध ऋषियों-विद्वानों के द्वारा कही गई । इस पुनरुक्ति में सामान्यप्रजाजन का ध्यान रखा गया। सूक्ष्म-तथ्य को स्थूल बनाने का उपक्रम हुआ । अलौकिक तथ्य को लौकिक स्तर पर व्यक्त करने का प्रयत्न हुआ । इस प्रकार वेद में सिद्धान्तरूप से कहे गये कथ्य या कथा का जिस जिस को दर्शन होता रहा, उस उसने अपने दृष्टार्थ को अपने ढंग से प्रस्तुत किया ।
अत्यन्तप्राचीन काल में यह प्रवृत्ति ब्राह्मण-ग्रन्थों के रूप में स्थिर हुई। बाद में उपनिषदों में आख्यानों का समावेश हुआ । जब रामायण-महाभारत जैसे इतिहासकाव्यों का प्रचलन हुआ और इन की जन-मानस में प्रतिष्ठा हो रही थी तब ब्राह्मणादि के आख्यानों का एक ओर से रामायण-महाभारत में प्रवेश हुआ और दूसरी ओर पुराण-साहित्य के रूप में इन का अलग ही आविर्भाव हुआ । संस्कृत के प्रशिष्ट साहित्य के कवियों ने भी मुल 'कथा' का अपने ढंग से कथन किया ।
वेद की कथा का जब अनेकत्र अनेकधा आख्यान हो चूका, तब कालान्तर में इन्हीं आख्यानों को दृष्टिपथ में रखकर वेदार्थ का उपक्रम होने लगा । यही उपक्रम हमें यास्कीय निरुक्त से लेकर सायणाचार्य आदि के वेदभाष्यों तक और आगे भी अर्वाचीन वेदभाष्यों में दिखाई पड़ता है।
उदाहरण के रूप में हम 'सुकन्याचरित' (आख्यान) को लेते हैं । यह आख्यान शतपथ', ताण्ड्यः , जैमिनीय आदि अनेक ब्राह्मण ग्रन्थों में मिलता है। यहाँ यह एक जैसा नहीं है। सर्वत्र अपने अपने ढंग से प्रस्तुत किया गया है। इसके बाद ब्रह्माण्डपुराण', देवीभागवत' तथा श्रीमद्भागवतपुराण में भी यह आख्यान मिलता है। इन सभी स्थानों में भी इस आख्यान का स्वरूप एक जैसा नहीं है। इनमें थोडा बहुत परिवर्तनपरिवर्धन होता ही रहा है ।
इस प्रकार ब्राह्मणग्रन्थों से प्रारंभ कर के पुराणों तक इस आख्यान का जो स्वरूप निर्धारित हो गया; उसे आकलित करके ऋग्वेद के कुछ मन्त्रों का अर्थघटन करने का वेदभाष्य कर्ताओं ने उपक्रम किया है । जब कि स्वामी दयानन्द ने सुकन्याचरित में आकलित उत्तरकालिक मान्यताओं को दृष्टिपथ से हटा कर ऋग्वेद के उन स्थलों का वेदार्थ किया है । स्वामी जी इन स्थलों में राजा या विद्वान् पुरुष के कर्तव्य की कथा देखते हैं। इस राज-कर्तव्य या पुरुष-कर्तव्य की मूलभूत कथा को केन्द्र में रखकर ब्राह्मणादि ग्रन्थों में अपने अपने ढंग से आख्यान बना लिए गये हैं, ऐसा लगता है। यह सुकन्याचरित आख्यान के रूप में जहाँ भी मिलता है; वहाँ राजा शर्याति के द्वारा च्यवन ऋषि के प्रति स्वसन्तान द्वारा हुए अपराध के दण्ड देने रूप 'राज कर्तव्य' को केन्द्र में रखा गया है, जो उल्लेखनीय है।
वेद की ऋचाओं में च्यवन, युवा, सुकन्या आदि पदों का प्रत्यक्ष रूप में प्रयोग हुआ है । पुराणादि में सुकन्याचरित का जिस प्रकार संग्रह है; उस प्रकार से ऋग्वेद के उन उन स्थलो में सुकन्याचरित की संभावना कर ली जा सकती है, फिर भी हमें इस तथ्य की और भी ध्यान देना होगा कि च्यवन, युवा, सुकन्या,
सामीप्य : पु. २४, र १-२, अप्रिल - सप्टे., २००७
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