Book Title: Samipya 2007 Vol 24 Ank 01 02
Author(s): R P Mehta, R T Savalia
Publisher: Bholabhai Jeshingbhai Adhyayan Sanshodhan Vidyabhavan
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वेद में अनित्य इतिहास नहीं है । इस में कीसी व्यक्ति-विशेष की कोई कथा नहीं है। न ही कीसी ऐसी ऐतिहासिक घटना का उल्लेख है; जो मानव-मानव के बीच घटित हुई हो । स्वामीजीने अपनी इस मान्यता का अपने वेदार्थ घटन में पूर्णतः परिपालन किया है ।
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उधर, परम्परा से वेदार्थघटन की जो विविध प्रक्रियायें चली आ रही हैं, उनमें एक प्रक्रिया 'आख्यान' भी है । यह प्रक्रिया ऐतिहासिक प्रक्रिया से संलग्न है । इस में वेद के मन्त्रगत भाव का अर्थघटन कीसी आख्यान के भागरूप में किया जाता है। कई बार कई मन्त्र मिलकर एक आख्यान को आकार देते हैं, तो कई बार किसी एक - दो मन्त्र को आख्यान का केन्द्र समझ कर मन्त्रोक्त वस्तु के आसपास की कथावस्तु कल्पित कर ली जाती है । यह कथावस्तु ही क्रमशः आख्यान बनता है । इस आख्यान को वेद के अर्थघटन का उपकारक साधन माना गया है और इसके द्वारा वेद के एक बड़े भाग का अर्थघटन दिया गया है ।
आधुनिक विद्वान् इन आख्यानों को 'मिथ' या 'मिथक' के रूप में देखते हैं; और इस में मिथ्यात्व की गन्ध अनुभूत करते हैं । कुछ अन्य विद्वान् इन आख्यानों को 'पुराकथा' या 'पुरावृत्त' मानते हैं और अन्ततः इन्हें लोकश्रुति तक ही सीमित कर देते हैं ।
इन आख्यानों के आश्रय से किये गए वेदार्थ का अर्थात् आख्यान- प्रक्रिया का आधार लेकर कालान्तर में विभिन्न मान्यतायें खडी कर ली गई हैं जो हमें पुराणसाहित्य में व्यापकरूप से दृष्टिगोचर होती हैं । आख्यान-प्रक्रिया के उद्गम का केन्द्रबिन्दु के रूप में ऋग्वेद में आये हुए संवाद-सूक्त तथा कथासूक्त माने गये हैं । मध्यकालीक आचार्यों के वेदार्थ में हम पाते हैं कि वे उपर्युक्त कथासूक्त या संवादसूक्त का भाष्य करने से पूर्व पुराण - प्रसिद्ध आख्यान का प्रस्तावना के रूप में ब्यौरा देते हैं । इस प्रकार प्रस्तावना में पुराणादि के सहयोग से एक आख्यान का पिण्ड खड़ा किया जाता है, और बाद में वेद के मन्त्रों का अर्थ करने का उपक्रम किया जाता है । तद्यथा - ऋग्वेद के दशममण्डल के पिचानवें सूक्त का वेदभाष्य करने से पूर्व सायणाचार्य पुरूरवोर्वशी - आख्यान का पुराण- गत सन्दर्भ उपस्थित करते इस में उर्वशी के पृथ्वी आगमन की, पुरूरवा के जन्म की, दोनों के मिलन की तथा वियोग की घटनाओं का विवरण दिया गया है । इसी कथा का आधार लेकर अब वे ऋग्वेद मण्डल - १० सूक्त - ९५ का वेदार्थ करते हैं । सायणाचार्य की इस रीति में हम देख सकते हैं कि वेदार्थ करने वाले को प्रथम तो (शतपथ से लेकर) पुराणों तक जाना पडता है । इस उत्तरकालिक साहित्य से जो विचारराशि प्राप्त होती हैं; उसी विचारराशि के आधार पर वेदार्थ का उपक्रम रचना पडता है। संभवतः वेदार्थघटन की इसी रीति की उद्घोषणा पौराणिक परम्परा “इतिहासपुराणाभ्यां वेदार्थमुपबृंहयेत् ।' अर्थात् इतिहास-पुराणों के द्वारा वेदार्थ को विस्तृत करना चाहिए' कह कर करती है ।
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सायणाचार्य की तरह ही इस सूक्त के सभी वेदभाष्यकार प्रवृत्त हुए हैं। आख्यान के आश्रय के बिना उपर्युक्त सूक्त का अर्थ लगाने में सभीने कठिनाई अनुभव की है। वेंकटमाधव इस सूक्त का अर्थ देने से पूर्व ही यह घोषणा करते हैं कि इस सूक्त में कई मन्त्रों का अर्थ हमें प्राप्त नहीं होता । इस पर भी
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जिन पाश्चात्य विद्वानोंने भी इस सूक्त का अर्थ सन्तोषकारक अनुवाद न हो सकने का अनुभव हुआ है।
पुरूरवा- - उर्वशीविषयक प्रचलित वृत्तान्त का सन्दर्भ लेते हुए उक्त सूक्त की ऋचाओं का अर्थ देते हैं । करने का उपक्रम किया है, उन्हें भी इस सूक्त का पुनरपि के भी पुराणादि में प्रचलित पुरूरवा - - उर्वशी सामीप्य: पु. २४, खंड १ - २, खेप्रिल - सप्टे. २००७
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