Book Title: Samipya 2007 Vol 24 Ank 01 02
Author(s): R P Mehta, R T Savalia
Publisher: Bholabhai Jeshingbhai Adhyayan Sanshodhan Vidyabhavan

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Page 48
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अश्विनौ आदि के पूर्वापर अनुसन्धान पूर्वक सम्बन्ध सूचित हो सके, इस रूप में वेद में कोई मन्त्र प्रयोग नहीं हुआ है । इस आख्यान के सम्बन्धित शब्द, आवश्यक सन्निधि से पर अस्त-व्यस्त रूप में मिल रहे हैं । पुनरपि वेद में सुकन्याचरित को आकारित करना हो, तो हमें शर्याति तथा उसके राज्यादि का अनुसन्धान भी वेदप्रयुक्त शब्दावलि के द्वारा ही करना चाहिए । पर ऐसा नहीं है। ऋग्वेद के उन उन स्थलों का वेदार्थ कई अध्याहृत पदों के आश्रय से किया गया है । अध्याहृत पदों के विनिश्चय का कोई तार्किक कारण देना संभव नहीं है । मात्र यह कहा जा सकता है कि ये पुराणादि में प्रसिद्ध है। इस प्रकार यह आख्यान-प्रक्रिया वेदार्थ को अपने मूल से हटा कर उत्तरकालिक साहित्यकी अवधारणाओं पर आधृत बना देती है। इतना ही नहीं, वेदार्थ को एक निश्चित व्यक्ति के आसपास घूमता हुआ संकुचित बना देती है। स्वामी दयानन्द ने इस की उपेक्षा कर वेदार्थ को वास्तविकतापूर्ण बनाने के साथ साथ सार्वभौमिक तथा सार्वकालिकता प्रदान की है । एस प्रकार देखें तो साहित्य जगत् में प्रचलित कथा तथा आख्यान का नया ही स्वरूप ऋषि दयानन्द के भाष्य में हम देख सकते हैं । संदर्भ नोंध वेदार्थ की विविध प्रक्रियाओं की ऐतिहासिक-मीमांसा के लिए 'वेदार्थ की विविध प्रक्रियाओं की ऐतिहासिक मीमांसा' पुस्तक देखें । लेखक - पं. युधिष्ठिर मीमांसक, प्रका० रामलाल कपूर ट्रस्ट, बहालगढ़, सं. २०३४. संवादसूक्त इस प्रकार हैं - मण्डल-१, सूक्त १२६, १६५, १७०,१७९; मण्डल-३, सूक्त ३३, तथा, छ अन्य; मण्डल१०, सूक्त-१०, ५१, ८६, ९५, १०२, १०८, १२८. कथासूक्त इस प्रकार हैं - ऋग्वेद मण्डल-१, सूक्त २४-३०, ८५, १०५, ११२, ११९, १२०, १२५; मण्डल-४, सूक्त१६, १७, १८, १९, २६, २७, ४२; मण्डल-५, सूक्त-२, ६१, ७८; मण्डल-८, सूक्त-१३, १४, १७, ७८, ९१, १००, ९६; मण्डल-९, सूक्त- ; मण्डल-१०, सूक्त-५१, १७, ३८, ४७, ४८, ५८, ६१-६२, ६७, ८१, ९८, १०९, ११९, १३५ ३. द्र० ऋग्वेद-सायणभाष्यम्; प्रका० वैदिक संशोधनमण्डल, पूना, द्वितीयावृत्ति, खण्ड-४; पृ. ६३९-६४० ऐसी ही कथा शतपथब्राह्मण, (११, ५, १, १-११) में है। महाभारत तथा कई पुराणों में थोडे बहुत परिवर्तनपरिवर्धन के साथ मिलती है । तद्यथा विष्णुपुराण ४-६, भागवतपुराण ९-१४; ब्रह्माण्डपुराण, ३.६५.४६, ६६, ४-५; मत्स्यपुराण २४, २३-३२, ४.३३.१८; पद्यपुराण सं. १२, ७६-८५; वायुपुराण २.१६; १०.४५, ९.१४; देवीभागवत १.१.३; हरिवंश १.३६ इत्यादि । शतपथब्राह्मणम् (रत्नदीपिका हिन्दी-टीकपोपेतम् प्रका. सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा, नई दिल्ली; सन् १९९८) - ४, ताण्ड्यमहाब्राह्मणम् (सम्पा. चिल स्वामिशास्त्री, प्रका. चौखम्बा, सं. सिरिस ओफिस, बनारस, वि.सं. १९९३(१९३६) १४, ६, ९-१० (पृ. १११) ७. जैमनीयब्राह्मणम् ३, १२०-१२४ ८. ब्रह्माण्डपुराणम्-२, ३२, ९८, ३, ८, ३१; २१, ३६. ९. देवीभागवतम् (सं. राधे मोहन पाण्डेय, प्रका. पण्डित पुतकालय, काशी, सं. २०१२); स्कं. ७, अ. ३ से ६. १०. श्रीमद्भागवतपुराणम् - ९, ३, १-२६. वेदार्थ और आख्यान For Private and Personal Use Only

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