Book Title: Samipya 2007 Vol 24 Ank 01 02
Author(s): R P Mehta, R T Savalia
Publisher: Bholabhai Jeshingbhai Adhyayan Sanshodhan Vidyabhavan
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ही उसे लगता है कि 'अयि लब्धं नेत्रनिर्वाणम् । राजा की इस प्रकार की अनूभूति का वर्णन करके शकुन्तला के सौन्दर्य की पराकाष्ठा और उत्कृष्ठता का सूचन कालिदास ने कर दिया है, परन्तु शकुन्तला का सौन्दर्य चक्षुरिन्द्रिय को सार्थकता की अनूभूति करानेवाला क्यों है ? यह बताने के लिए राजा शकुन्तला के निर्माण के बारे में कल्पना करके इसके सौन्दर्य का वैशिष्ट्य बताता है । राजा शकुन्तला को बे-सूंघा हुआ पुष्प, नाखूनों से न नोंचे गए कोमल पल्लव, अखण्डित रत्न तथा अभिनव मधु और अखण्ड पुण्यों के फल रूप बताकर शकुन्तला के अनघ सौन्दर्य की प्रशंसा करता है । शकुन्तला के सौन्दर्य की प्रशंसा के साथ ही दुष्यन्त को चिन्ता भी होती है कि 'विधाता इस रूप - लावण्य का भोक्ता किसे बनाएगें ।३' इस से पता लगता है कि कालिदास के मतानुसार सौन्दर्य स्वयं में सार्थक नहीं है । भोक्ता के होने से ही सौन्दर्य सार्थक है (भोक्ता के होने से ही शकुन्तला अपने सौन्दर्य के बारे में विश्वस्त होगी और उसे अपना सौन्दर्य सार्थक लगेगा ।) भोक्तृकी चक्षुरिन्द्रियको सार्थक्य की और निर्वाण की अनूभूति करा सकने में समर्थ हो वही सौन्दर्य उत्कृष्ट है । सार्थक है । विक्रमोर्वशीयम् में राजा पुरुरवा अप्सरा उर्वशी के दैवी सौन्दर्य का वर्णन उसके उत्पत्ति विषयक पौराणिक सन्दर्भ से जोड़कर करता है । राजा के लिए तो उर्वशी इतनी सुन्दर है कि अकस्मात् भी किसी की नज़र में आ जाए तो देखनेवाले व्यक्ति के नेत्र धन्य हो जाए ।" राजा पुरुरवा की इस अनूभूति के वर्णन द्वारा कालिदासने उर्वशी के दैवी सौन्दर्य को प्रशस्ति की पराकाष्ठा पर पहुँचाया है ।
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'मालविकाग्निमित्रम्' में राजा अग्निमित्रने मालविका का चित्र जब से देख लिया हे तब से वह उसके प्रत्यक्षदर्शन के लिए आतूर है । मालविका को देखते ही उस के प्रत्येक अङ्ग की अनवद्यता का वर्णन संकर अलंकार की योजना से करता है । राजा जब मालविका का सस्मित मुख देखता है तब उसे लगता है कि
'उपात्तसारश्वक्षुषा में स्वविषयः ।' नृत्यप्रयोग के बाद मालविका जैसे ही मंच पर से अदृश्य होती है राजा को लगता है कि जैसे आँखो का भाग्य अस्त हो गया, हृदय का महोत्सव पूर्ण हो गया मालविका के भोग्य सौन्दर्य को राजा की भोक्तृ चक्षुरिन्द्रिय के भाग्यरूप और साररूप बताकर कालिदासने मालविका के सौन्दर्य का चरम उत्कर्ष बयान किया है ।
कुमारसम्भवम् में शिव को पति के रूप में प्राप्त करने के मनोरथ से पार्वती कामदेव और वसंतऋतु की सहायता लेकर उनकी पूजा करने जाती है, तब शिव विम्बफल समान अधरोष्ठवाली पार्वती के मुख को तीनों आंखो से देखते हैं परन्तु पार्वती अनुपम सौन्दर्य से भी जितेन्द्रिय शंकर की प्रसन्न नहीं कर सकती है । परन्तु पार्वती की समक्ष ही शिव कामदेव को नेत्राग्नि से जलाकर भस्मीभूत कर देते हैं । तब पार्वती अपने सौन्दर्य की हृदयपूर्वक निन्दा करती है । यहाँ कालिदास सौन्दर्य के विषय में अपने विचार दर्शाते है कि "प्रियेषु सौभाग्यफला हि चारूता ।" अर्थात् 'प्रिय को प्राप्त करा सकने वाला सौभाग्यफल ही सुन्दरता है । भोग्य यदि भोक्ता के लिए संतर्पक न हो सके तो भोग्यपदार्थ का प्रयोजन सिद्ध नहीं होता । वह अचरितार्थ (अपूर्ण) रहता है । यहाँ पार्वती त्रैलोक्य सुन्दरी होने पर भी उसका सौन्दर्य स्वयं में अपर्याप्त है । उसका सौन्दर्य जब शिव को आकृष्ट न कर सका तब वह तपका मार्ग लेती है ।'
रघुवंश के द्वितीय सर्ग में दिलीप नन्दिनी गाय को चराने के लिए वन में जाता है तब उसके प्रभावक व्यक्तित्व का तादृश चित्रण कालिदासने किया है । नन्दिनी की रक्षा के बहाने बन के सारे दुष्ट तत्त्वों को वश में करने के लिए वन में विचरण करते राजा का व्यक्तित्व अत्यंत दर्यार्द्र है। दिलीप के दयाद्र व्यक्तित्व का साफल्य इसी में है कि हिरन जैसा डरपोक प्राणी भी उसे अपने नेत्रो की विशालता सार्थक करते हुए ध्यान से देखते हैं ।"
कालिदास में दृष्टि सौन्दर्य
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