Book Title: Samipya 2007 Vol 24 Ank 01 02
Author(s): R P Mehta, R T Savalia
Publisher: Bholabhai Jeshingbhai Adhyayan Sanshodhan Vidyabhavan
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की कथा का आश्रय लेकर इस सूक्त का अर्थ कर लेते हैं । ऐसी ही स्थिति वेदगत अन्य कथासूक्त एवं संवादसूक्तों की भी है।
वेदार्थ की यह आख्यानकृत पद्धति हमें उत्तरकालिक साहित्य में प्रचलित मान्यताओं के आश्रय से वेद के अर्थ तक पहुँचाती है । या यूँ कहें कि इस वेदार्थप्रक्रिया में नीचे से उपर की ओर; अर्वाचीनता से प्राचीनता की ओर जाया जाता है। यदि ब्राह्मणादि से लेकर पुराणों तक के प्रसिद्ध आख्यानों का आश्रय न हो, तो वेद की इन ऋचाओं का अर्थ करना मुश्कील हो जाएगा। इस स्थिति में जब ब्राह्मणादि से लेकर पुराणादि ग्रन्थों में प्रसिद्ध आख्यानों का आश्रय लेकर वेदार्थ का उपक्रम किया जाएगा, तब स्वाभाविक ही है कि उस वेदार्थ में ब्राह्मणादि-पुराणान्त साहित्य में प्रचलित मत-मतान्तरों की छाया भी पडेगी । सायणाचार्य आदि के भाष्य में यही हुआ है।
स्वामी दयानन्द सरस्वती का वेदार्थ इनसे इसलिए अलग है, क्योंकि इस में वेद का अर्थ वेद से ही प्रारंभ किया गया है। वे पीछे से प्रचलित हए आख्यानादि को दृष्टिपथ से दर रखकर वेदार्थ का उपक्रम करते हैं । इस उपक्रम में वेद में प्रयुक्त शब्दों का यौगिक अर्थ लिया गया है। इस यौगिकार्थ के आधार पर तैयार किये गये वेदार्थ में उन कथनीय तथ्यों को उजागर किया गया है, जो सार्वजनिक हों, सार्वभौमिक हों और सार्वकालिक हों । इस प्रकार अन्य प्राचीन-अर्वाचीन वेदभाष्यकारों की तरह वेदार्थ संकुचित न होकर स्वामी दयानन्द का वेदार्थ व्यापक और विस्तृत बन गया है। स्वामी दयानन्द के वेदार्थ की यह पद्धति वेदार्थघटन की वास्तविक प्राचीनतम पद्धति होने का दावा कर सकती है। क्योंकि इसी पद्धति के आश्रय से ही 'वेद' के पास से प्राचीनोंने 'सर्वज्ञानमयो हि सः' इत्यादि वचनों में जो अपेक्षाएँ रखी हैं; वे पूर्ण हो सकती हैं ।
. अपने वेदार्थ के उपक्रम में स्वामी दयानन्द ने भले ही पुराणादि में प्रसिद्ध आख्यानों की उपेक्षा की हो; परन्तु वे अपनी ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के कई प्रकरणों में पुराणगत आख्यानों का मूलतः अभिप्रेत अर्थघटन करते हैं । इस से सूचित होता है कि ऋषि दयानन्द को आख्यान अभीष्ट रहे हैं; परन्तु उत्तरकालिक साहित्य में प्रचलित आख्यानों का वेदार्थ में उपयोग करने के पक्ष में वे नहीं है।
___ वस्तुत: 'ऋग्वेर्दृष्टार्थस्य प्रीतिर्भवत्याख्यानसंयुक्ता ।' अर्थात् दृष्टार्थ ऋषि की आख्यान से युक्त कथन में प्रीति होती है ।
इस पारम्परिक मत के प्रति भी ऋषि दयानन्द को आदर है। स्वामी जी के वेदार्थ का अनुशीलन करने पर प्रतीत होता है कि वे वेद के प्रत्येक मन्त्र में कोई न कोई 'कथा' के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। यहाँ कथा का अर्थ प्रवर्तमान संस्कृत साहित्य में प्रचलित रूढार्थ अभिप्रेत नहीं है। परन्तु 'कथा' का यौगिकार्थ अभिप्रेत हैं: "(परमेश्वरेण) सिद्धान्ततया मूलतया वा कथ्यते सा कथा" अर्थात् परमेश्वर के द्वारा सिद्धान्त रूप से या मूलरूप (मनुष्यमात्र के उपयोगी ज्ञान को) जो कहा जाता है वह 'कथा' है । वेद के प्रत्येक मन्त्र में कथा है। जो परमेश्वर ने प्राणीओं के कल्याणार्थ कही है। यह कथा न कीसी व्यक्तिविशेष से जुडी है और न ही किसी देश या काल विशेष से । यह तो सार्वजनीन, सार्वदेशिक तथा सार्वकालिक
वेदार्थ और आख्यान
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